कब होगा स्वाधीनता आन्दोलन का दस्तावेजीकरण

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स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर एक संस्था द्वारा सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था। जिसमें तमाम मेधावी बच्चों ने भाग लिया। संस्था द्वारा पूछे गये अधिकांश प्रश्न आजादी आन्दोलन से संबंधित थे लेकिन आयोजक यह देख कर हैरान हो गये कि बच्चे सबसे कम उम्र में शहीद होने वाले का नाम, 15 शहीद हुये सेनानियों के नाम जैसे तमाम प्रश्नों के जबाब नहीं बता सके। आजादी के आन्दोलन के संबंध में आज की युवा पीढ़ी के ज्ञान का यह कड़वा सच है।

कब होगा स्वाधीनता आन्दोलन का दस्तावेजीकरण

देश को आजाद हुये अभी एक सदी भी नहीं बीती है लेकिन इतने दिनों में ही स्वाधीनता आन्दोलन लोगों के जेहन से गायब हो गया है। आजादी की लड़ाई में अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले सेनानी अथवा अंग्रेज शासकों की क्रूरता के साक्षी लोगों की संख्या देश अब गिनी चुनी होगी जो आने वाले समय में समाप्त हो जायेगी। आज 78 वर्ष बाद जब देशवासी आजादी के इतिहास जानने का प्रयास करते हैं तो पता चलता हैे कि देश में लम्बे समय तक चले स्वाधीनता आन्दोलन का कोई समेकित इतिहास कहीं भी उपलब्ध नहीं है। इतने कम अवधि में ही हालत यह है कि तमाम वीर गाथाओं के किस्सों पर लोग प्रश्न चिन्ह उठाने लगे है तो युवा पीढी उसे किवदंती बताने लगी है। कितनी घटनायें समय के साथ विस्मृत होती जा रही है। देश के अनेक स्थानों पर अंजान शहीद के नाम पर बनी तमाम मूर्तियां अब अपनी आभा और पहचान खो रही है क्योंकि कोई उनकी देखभाल करने का दायित्व किसी के पास नहीं है। इसी प्रकार अनेकों स्थान पर स्वाधीनता सेनानियों की जानकारी देने वाले शिलापट्ट भी अराजक तत्वों द्वारा तोड़कर फेंक दिये गये अथवा वह स्थान ही अतिक्रमण का शिकार हो गया। आजादी से लेकर आज तक की सरकारें शहीदों से जुड़े अनेकों प्रकार के स्मृति चिन्हों को संजोये रखने के लिये गम्भीर नहीं है। 

विश्व इतिहास से सबक नहीं 

विश्व इतिहास का मंथन करने वाले लोग बताते हैं कि जब भी दुनिया का कोई देश  किसी राष्ट्रीय त्रासदी से गुजर कर उसमें विजय हासिल करता है, तो वह देश की भावी पीढ़ियों को उस संघर्ष से वास्तविक परिचय कराने के लिए भी उसका दस्तावेजीकरण कराता है। लेकिन भारत का दुर्भाग्य है कि आजादी के बाद सत्ता में आयी कांग्रेस सरकार ने 90 वर्षो तक ब्रिटिश शासन के विरुद्ध चली स्वाधीनता की लड़ाई का कोई दस्तावेजीकरण  नहीं कराया। अपने पड़ोसी देश चीन का ही उदाहरण लें तो हम देखते हैं कि चीन ने भी सर्वहारा हितों की स्थापना के लिये सांस्कृतिक क्रांति की शुरुआत करके  अपने ही सामंतवाद से लंबा संघर्ष किया था और जब चीनी क्रांतिकारियों को निर्णायक विजय मिली तो इस संघर्ष के अगुवा रहे ’माओ त्से तुंग’ ने बाकायदा आयोग बनाकर इस समूचे संघर्ष का दस्तावेजीकरण कराया जो करीब 100 भाग में संकलित हुआ। इसी प्रकार रूस ने भी वोल्सेविक क्रांति के बाद संघर्षो का दस्तावेजीकरण कराया था लेकिन उपनिवेशवाद के विरुद्ध सबसे लंबी लड़ाई लड़ कर जीत हासिल करने वाले भारत में उस महान संघर्ष का दस्तावेजीकरण नहीं कराया गया है। आजादी के बाद भी हम इस मामले में बेपरवाह रहे। कांग्रेस ने दुनिया के सबसे बड़े विस्थापन भारत-पाकिस्तान के बंटवारे का भी अधिकृत दस्तावेजीकरण नहीं करवाया। यही वजह है कि इन हृदयविदारक घटनाओं को हमारे तमाम तथाकथित बुद्धिजीवी और राजनैतिक दल अपने स्वार्थ के लिये तोड़ मरोड़ कर पेश करते रहते है और देश दुनियां के लोग उसे सच मान लेते है।  

शहीदों का आंकड़ा नहीं

आजादी आन्दोलन का दस्तावेजीकरण न होने के कारण एक और समस्या आती है। आज देश में कोई भी यह बता पाने में सक्षम नहीं है कि स्वाधीनता  संग्राम में कितने लोग और कौन कौन शहीद हुआ है। समूचे भारत को छोड़ दिया जाय तो आज छोटे से छोटे राज्यों और जनपदों तक में आंकड़े उपलब्ध नहीं है। आज हम भूमि, वृक्ष से लेकर पशु-पक्षियों तक के आंकड़े जारी करते है लेकिन शहीदों से जुड़े आंकड़े कोई जारी नहीं करता हैं। यही कारण है कि इसे लेकर इतिहासकारों में बड़ा मतभेद है। किसी के मुताबिक इस आजादी की लड़ाई में 12,000 लोग शहीद हुए, किसी के मुताबिक 80,000 से ज्यादा लोग इस संघर्ष में मारे गए, तो कुछ इतिहासकारों का मत लाखों लोगों के शहीद होने की बात कहता है। लाखों लोगों की शहादत का आंकड़ा अगर सच नही ंतो सच के करीब जरुर लगता है। अगर उत्तर प्रदेश के प्रयागराज,फतेहपुर, कानपुर, कानपुर देहात जैसे कुछ जनपदों में बचे बुढे दरख्त, नीम का पेड़, फांसी इमली, बावनी इमली, सबलपुर गांव की नीम आदि पर दी गई फंासी के बारे चर्चित कहानियों पर भरोसा करे तो यह संख्या ही कई हजार पंहुच जाती है।

10 करोड़ भारतीयों की शहादत

देश के शहीदों की संख्या के बारे में जानने के कोई दस्तावेज न होने के कारण कई बार सार्वजनिक मंच पर हम बेवस नजर आते है। कुछ वर्ष पूर्व ऑस्ट्रेलिया के 2 रिसर्च स्कॉलर डायलन सुलिवन और जैसन हिकेल ने अपने शोध में भारत में 1880 से लेकर 1920 तक के महज 40 सालों में ब्रिट्रिश शासकों की क्रूरता के चलते 10 करोड़ भारतीयों के मारे जाने का दावा किया था। इस दावे को जांचने के लिए हमारी सरकारों ने कोई प्रयास नहीं किया, इसलिए इसके पक्ष या विरोध में कुछ कहना सही नहीं होगा।

 अभी आजादी के मात्र 78 वर्ष ही बीते है यदि सरकार प्रयास करे तो आजादी के इतिहास, शहीदों की संख्या, क्रूरता की घटनाओं से जुड़े तमाम साक्ष्य मिल जायेगें और हम उन्हें देश भक्ति ग्रंथ के रुप में सजों कर आगे आने वाली पीढी को सौंप सकते है। यदि कोई सरकार ऐसा कर पाती है तो इतिहास में उसका नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित किया जायेगा। 

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