Hari Mangal
भारतीय इतिहास में राष्ट्र रक्षा और धर्म रक्षा के लिए शहादत देने वालों की एक लंबी सूची मिल जाएगी, लेकिन दूसरे धर्म की रक्षा के लिए प्रताड़ित होकर बलिदान देने वाले महापुरुषों की सूची बहुत छोटी है। इस सूची में सर्वोपरि नाम गुरु तेग बहादुर साहिब का आता है, जिन्हें "हिंद की चादर" के रूप में भी जाना जाता है। धर्म, मानवीय मूल्यों, और सिद्धांत के लिए सिर कटाने वाले गुरु के बलिदान को इस साल 350 वर्ष हो गए, लेकिन देश-विदेश में उनके बलिदान की गाथा को आज भी पूरी आस्था और श्रद्धा के साथ याद किया जाता है।
गुरु तेग बहादुर का जन्म 1 अप्रैल 1621 को अमृतसर में हुआ था। वे छठे सिख गुरु हरगोबिंद साहिब के सबसे छोटे पुत्र थे, जिनका बचपन का नाम त्यागमल था। उन्होंने आरंभिक शिक्षा के साथ-साथ शस्त्र विद्या में भी निपुणता प्राप्त की, क्योंकि उस समय मुगलों का शासनकाल चल रहा था, जो आए दिन किसी न किसी बहाने सिखों और हिंदुओं का उत्पीड़न कर रहे थे, जबरन धर्म परिवर्तन कराने का अभियान चला रहे थे। एक बार करतारपुर में मुगलों की सेना से युद्ध करके सिख गुरु हरगोबिंद साहिब वापस अपने कीरतपुर गांव जा रहे थे। अचानक पीछे से आई मुगल सेना की एक टुकड़ी ने फगवाड़ा के पास उन पर हमला कर दिया। गुरु हरगोबिंद साहिब के साथ उस समय त्यागमल भी थे। त्यागमल ने इस युद्ध में अपनी कमर में बंधे तेज (कृपाण) के प्रहार से मुगल सैनिकों के छक्के छुड़ा दिए। तेज से प्रभावित पिता ने उसी समय त्यागमल का नाम बदलकर तेग बहादुर रख दिया।
1664 की शुरुआत में सिखों के आठवें गुरु हरकिशन का निधन हो गया। अपने निधन से पहले उन्होंने कहा था कि उनका उत्तराधिकारी बकाला में मिलेगा। अगस्त 1664 में दिल्ली से सिखों का एक जत्था बकाला गया और वहां सभा बुलाकर नौवें गुरु के रूप में तेग बहादुर के नाम का ऐलान किया गया। प्रारंभिक दिनों में गुरु तेग बहादुर को बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। बकाला में उनकी हत्या का प्रयास किया गया, लेकिन वे बच गए। विरोधियों की साजिश से बचने के लिए वे अमृतसर गए, लेकिन वहां भी हरमंदिर साहिब के दरवाजे बंद कर दिए गए। अंत में वे अपने पिता के बसाए कीरतपुर गांव गए और लगभग पांच किलोमीटर दूर आनंदपुर नामक गांव की स्थापना की। यही आनंदपुर आज आनंदपुर साहिब के नाम से देश-विदेश में सिखों के पावन स्थल के रूप में विख्यात है। यद्यपि कहा जाता है कि उनके विरोधी यहां भी उन्हें परेशान करते रहे।
गुरु तेग बहादुर की समाज में बढ़ती लोकप्रियता से उनके स्थानीय विरोधियों के साथ ही समकालीन मुगल शासक औरंगजेब भी पीछे पड़ गया। बताया जाता है कि आनंदपुर से देश में प्रचार-प्रसार के लिए निकले गुरु को 8 नवम्बर 1665 को मुगल सैनिकों ने गिरफ्तार करके औरंगजेब के सामने पेश किया। आरोप लगाया गया कि वे सिख धर्म के साथ हिंदुओं का समर्थन करके शांति व्यवस्था को खराब कर रहे हैं। गुरु तेग बहादुर औरंगजेब को समझाना चाहते थे कि तमाम वैचारिक, सैद्धांतिक और रीति-रिवाजों के मतभेदों के बावजूद वे हिंदुओं के सम्मान और उनके धार्मिक अधिकारों के लिए लड़ते हैं। औरंगजेब के साथ-साथ उसके तमाम सलाहकार गुरु के तर्कों से सहमत नहीं हुए और इस्लाम के लिए खतरा मानते हुए उन्हें फांसी देने का निर्णय ले लिया। परंतु राजपूत मंत्री राजाराम सिंह के अनुरोध पर औरंगजेब ने एक माह बाद सारे आरोप वापस लेकर गुरु को छोड़ दिया। इस प्रकार गुरु तेग बहादुर के जीवन पर आया एक और खतरा टल गया।
औरंगजेब की जेल से छूटने के बाद गुरु तेग बहादुर अपने देश भ्रमण पर निकल गए और लगभग 6 वर्ष तक देश के अनेक स्थानों का भ्रमण कर लोगों को अपने धर्म, संस्कृति, साहस और सत्य की राह पर अडिग रहने का संदेश दिया। 1672 में वापस लौटने के बाद से वे अपनी गद्दी पर आसीन रहे। अब गुरु का तेज पंजाब के सटे कई राज्यों में भी फैल चुका था, लोग उनकी चर्चा बहादुर योद्धा के रूप में करते थे। इसी बीच 25 मई 1675 को कश्मीर से आए पंढितों के एक दल के मुखिया कृपा राम ने बताया कि औरंगजेब के गवर्नर इफ्तिखार खां के एक आदेश से हम लोगों का हजारों साल से चला आ रहा धर्म संकट में आ गया है क्योंकि वह सबको इस्लाम स्वीकार करने, अन्यथा मौत के घाट उतारने की धमकी दे रहे हैं। कश्मीरी पंडितों के जबरन धर्मांतरण और उत्पीड़न की बात सुनकर गुरु ने आक्रोशित होकर कहा, "आप उन्हें संदेश दे दें कि यदि गुरु तेग बहादुर इस्लाम स्वीकार कर लेंगे तो हम भी अपना धर्म बदल कर इस्लाम स्वीकार कर लेंगे।" गुरु की यह बात जब औरंगजेब तक पहुंची तो उसने गुरु तेग बहादुर को दिल्ली में पेश होकर इस्लाम कबूल करने का आदेश दिया।
औरंगजेब का आदेश मिलने के बाद गुरु तेग बहादुर 11 जुलाई 1675 को अपने पांच साथियों के साथ दिल्ली के लिए प्रस्थान किया। गुरु को आभास हो गया था कि अब वापसी नहीं होगी, इस लिए उन्होंने सबसे विदा लेते समय कहा, "यदि हम वापस न लौटें तो हमारे पुत्र गोबिंद को गुरु की गद्दी पर बिठा दिया जाए।" दिल्ली जा रहे गुरु को रोपड़ के पास उनके तीन साथियों, भाई मतिदास, भाई सतीदास और भाई दयाला के साथ मुगल अधिकारियों ने गिरफ्तार करके दिल्ली भेज दिया। दो साथी गिरफ्तारी से बच गए, क्योंकि उन दोनों को गुरु ने दिल्ली का माहौल समझने के लिए आगे भेज दिया था। दिल्ली में गुरु और उनके तीन साथियों को चार माह तक चांदनी चैक थाने में रखा गया। थाने में चारों लोगों को यातनाएं दी जाती रही और उनसे हिंदुओं का सहयोग न करने और इस्लाम स्वीकार करने का दबाव बनाया जाता रहा। एक दिन स्वयं औरंगजेब लाल किले के दीवान-ए-आम में आकर गुरु से बहुत देर तक सवाल करता रहा और कहा कि आप हिंदुओं के मामले में क्यों आगे आ रहे हैं, जबकि सिख और हिंदू धर्म की रीति-रिवाज और तमाम परंपराएं अलग-अलग हैं। लेकिन गुरु तेग बहादुर ने कहा, "हिंदू पीड़ित हैं, इस लिए हम उनके साथ खड़े हैं।" जब औरंगजेब को लगा कि गुरु हिंदुओं का साथ नहीं छोड़ेंगे तो उसने साफ-साफ कहलवा दिया कि वे इस्लाम स्वीकार करें अथवा मौत का सामना करें। कुछ दिन के इंतजार के बाद जब गुरु ने इस्लाम स्वीकार करने के लिए हामी नहीं भरी तो उसने उनके जेल में बंद तीनों साथियों को क्रूर यातनाएं देकर मौत की नींद सुला दिया। सबसे पहले भाई मतिदास को दो पेड़ों के बीच बांध दिया गया और आरे से उनके शरीर के टुकड़े कर दिए गए। भाई सतीदास को कढ़ाहे में खौलते तेल में जिंदा डाल दिया गया। तीसरे साथी दयाला के शरीर पर रुई लपेट कर एक खंभे से बांधकर आग लगा दी गई। यह सब सार्वजनिक रूप से किया जा रहा था, जिसे वहां एकत्र भीड़ के साथ गुरु तेग बहादुर भी देख रहे थे।
गुरु तेग बहादुर की आंखों के सामने यह नृशंस हत्याएं हुईं, लेकिन वे विचलित नहीं हुए और उनका भी अंतिम दिन आ गया। 24 नवम्बर 1675 का काला दिन सुबह गुरु ने स्नान करके वाहे गुरु को याद किया। गुरु को दी जाने वाली सजा को देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग एकत्र थे। जल्लाद तलवार लेकर जब गुरु की ओर बढ़ा तो उन्होंने आशीर्वाद देने की मुद्रा में अपने दोनों हाथ उठा दिए और जल्लाद की तलवार के एक झटके में ही उनका सिर धड़ से अलग होकर नीचे गिर गया। शव को लावारिस हालत में छोड़ दिया गया था। रात में गुरु के शिष्य जैता दास उनके कटे सिर को लेकर आनंदपुर चले गए और उनके 9 वर्षीय पुत्र गोबिंद जी को सौंप दिया। गुरु के धड़ को लखी शाह नाम के एक व्यक्ति ने अपने घर में ले जाकर अंतिम संस्कार कर दिया।
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