आख़िरकार जेन-ज़ी को भड़काने में सफल रहे अलगाववादी, लेह-लद्दाख की घटना से सबक ले सरकार

Photo of writer Prabhat Kumar Prabhat Kumar Tiwari
लेह-लद्दाख की हिंसा सरकार के लिए एक गंभीर चेतावनी है कि युवाओं के असंतोष को अनदेखा करना खतरनाक हो सकता है। इस समस्या का समाधान संवाद, रोजगार और संवैधानिक सुरक्षा में निहित है। इसे केवल अलगाववाद कहकर टालना सही नहीं होगा। यह समय है जब सरकार जनभावनाओं को समझकर निर्णायक और संवेदनशील कदम उठाए।

आख़िरकार जेन-ज़ी को भड़काने में सफल रहे अलगाववादी, लेह-लद्दाख की घटना से सबक ले सरकार

Leh Ladakh Protest: देश में बुधवार को लेह-लद्दाख में भड़की हिंसा ने न केवल स्थानीय प्रशासन, बल्कि पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। जहां एक ओर अलगाववादी तत्वों पर हिंसा भड़काने का आरोप लगाया गया, वहीं दूसरी ओर लद्दाख के युवाओं ( “जेन-ज़ी”) के भीतर जमा गुस्सा, बेरोज़गारी, लोकतांत्रिक मंचों की कमी और संवैधानिक उपेक्षा को भी इस आंदोलन की जड़ माना जा रहा है। यह घटनाक्रम केवल एक स्थानीय उथल-पुथल नहीं है, बल्कि यह भारत में बढ़ते युवा असंतोष और उसकी राजनीतिक, सामाजिक तथा वैचारिक पृष्ठभूमि की गहरी पड़ताल का भी अवसर है।

घटना की पृष्ठभूमि: आंदोलन से अशांति तक

लेह-लद्दाख के लोग लंबे समय से अपनी मांगों को लेकर संघर्षरत हैं। इन मांगों में प्रमुख हैं: लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा देना, संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करना, स्थानीय निवासियों को भूमि और रोजगार में प्राथमिकता देना, क्षेत्रीय संस्कृति और पारंपरिक जीवनशैली की संवैधानिक सुरक्षा देना शामिल है। हालांकि, केंद्र सरकार द्वारा 2019 में लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से अलग कर केंद्र शासित प्रदेश बनाए जाने के बाद भी इन मांगों पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। नतीजतन, पांच वर्षों तक शांतिपूर्ण ढंग से अपनी बात रखने के बावजूद जब युवाओं को कोई सुनवाई नहीं मिली, तो उनका आक्रोश सड़कों पर फूट पड़ा। सोनम वांगचुक जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इन आंदोलनों को अहिंसक बनाए रखने की भरपूर कोशिश की, लेकिन 24 सितंबर को स्थिति हाथ से निकल गई। बीजेपी कार्यालय में आगज़नी, सरकारी संपत्ति को नुकसान, और सड़कों पर आक्रोशित भीड़—इन घटनाओं ने इस आंदोलन की दिशा को हिंसा की ओर मोड़ दिया।

सरकार का रुख और अलगाववाद का तर्क

सरकारी हलकों और कुछ मीडिया रिपोर्टों में यह दावा किया गया कि इस हिंसा के पीछे “नापाक साजिश” है। सरकार समर्थक मीडिया ने इस आंदोलन को बाहरी ताकतों द्वारा प्रायोजित बताया और कहा कि यह एक अलगाववादी एजेंडे का हिस्सा है। जम्मू-कश्मीर के पूर्व डीजीपी और गृह मंत्रालय के कुछ अधिकारियों ने कहा कि आंदोलन में नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका के आंदोलन जैसे तत्व दिखाई दे रहे हैं। यानी कि युवाओं को उकसाया गया, उनका आक्रोश एक बड़े राजनीतिक खेल का हिस्सा बना। लेह-लद्दाख में प्रदर्शनों का नेतृत्व प्रसिद्ध जलवायु कार्यकर्ता सोनम वांगचुक द्वारा किया गया, जिन्होंने शुरू से ही आंदोलन को अहिंसक बनाए रखने की अपील की थी। उन्होंने हिंसा की कड़ी निंदा करते हुए इसे “जेन-ज़ी का उन्माद” बताया और युवाओं से संयम बरतने का आग्रह किया। साथ ही उन्होंने यह स्पष्ट किया कि यह आंदोलन किसी बाहरी या अलगाववादी साजिश का हिस्सा नहीं है, बल्कि युवाओं के भीतर गहराते सामाजिक और राजनीतिक असंतोष का परिणाम है। यह जेन-ज़ी की आत्म-प्रेरित अभिव्यक्ति है, जो पांच साल के शांतिपूर्ण प्रयासों के बाद भी उनकी आवाज़ न सुने जाने के कारण सामने आई है।

युवा आक्रोश: एक सामाजिक हकीकत

देश की जनसंख्या बढ़ने के साथ-साथ बेरोजगारी भी एक बड़ी समस्या बनती जा रही है। आजकल युवा अपनी पढ़ाई पर लाखों रुपये खर्च करने और लंबा समय पढ़ाई में बिताने के बाद भी बेरोजगार है। सरकार की लाख कोशिशों के बाद भी लोगों को पर्याप्त मात्रा में रोजगार नहीं मिल पा रही है। लेह लद्दाख की जनता भी देश से अलग नहीं है, यहां के युवाओं की समस्याएं भी देश के अन्य राज्यों जैसी ही हैं। लेह-लद्दाख की घटना को समझने के लिए हमें आज के युवाओं—विशेष रूप से “जेन-ज़ी”—के मनोविज्ञान और सामाजिक परिस्थितियों को समझना होगा। ये वो पीढ़ी है जो सोशल मीडिया, वैश्विक विचारधाराओं और त्वरित प्रतिक्रिया के दौर में पली-बढ़ी है। लद्दाख में रोजगार के अवसर बेहद सीमित हैं। सरकारी नौकरियों की संख्या कम है और निजी क्षेत्र में निवेश की गति बेहद धीमी है। यही नहीं, केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद से लद्दाख को वह राजनीतिक आवाज़ नहीं मिली जिसकी अपेक्षा थी। इसके अलावा छठी अनुसूची में शामिल न किए जाने से स्थानीय समुदायों को लग रहा है कि उनकी पहचान, संस्कृति और संसाधनों पर खतरा मंडरा रहा है। इसलिए सरकार को मामले को बहुत ही गंभीरता से लेकर उसका ठोस समाधान निकालना होगा। 

पड़ोसी देशों से तुलना: एक सावधानी भरी चेतावनी

नेपाली, बांग्लादेशी और श्रीलंकाई आंदोलनों से भी इस प्रकार के असंतोष की समानता देखी जा सकती है। इन देशों में युवाओं के शांतिपूर्ण आंदोलनों को बाद में हिंसक तत्वों ने हाईजैक कर लिया, जिससे व्यापक हिंसा, तोड़फोड़ और सरकारी संपत्तियों को नुकसान पहुंचा। विशेषकर नेपाल में जेन-ज़ी आंदोलन की दिशा बदल गई थी जब कुछ असामाजिक तत्वों ने उसका लाभ उठाया। वहां के युवाओं ने बाद में उस हिंसा पर क्षोभ व्यक्त करते हुए खुद ही साफ-सफाई अभियान शुरू किया और सरकारी भवनों की मरम्मत में भागीदारी की। भारत में भी यदि समय रहते संवाद और समाधान की प्रक्रिया शुरू नहीं की गई, तो हालात नेपाल जैसे बन सकते हैं।

पड़ोसी देशों में उपजे हालातों की विश्लेषण करें, तो नेपाल, श्रीलंका और बांग्लादेश में हाल के वर्षों में युवाओं के आंदोलनों ने हिंसक मोड़ लिया। वहां भी शुरूआत जनसरोकारों से हुई थी—बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, सत्ता का केंद्रीकरण—लेकिन धीरे-धीरे कुछ तत्वों ने इन्हें हाईजैक कर लिया। नेपाल में हुए युवा आंदोलन में राजनीतिक दलों की घुसपैठ ने इसे असली मुद्दों से भटका दिया। हिंसा बढ़ी, सरकारी संपत्ति का नुकसान हुआ। श्रीलंका में आर्थिक संकट के चलते युवाओं का आंदोलन सत्ता पलट का कारण बना, लेकिन अंततः जनता को भारी नुकसान उठाना पड़ा। वहीं, बांग्लादेश में छात्र आंदोलनों ने कई बार सरकार को झुकने पर मजबूर किया, परंतु हिंसा के कारण राजनीतिक अस्थिरता आई। जनता आज भी खामियाजा भुगत रही है। अब लेह की हिंसा में भी यही डर है कि यदि सरकार ने इसे केवल “अलगाववाद” कहकर दरकिनार किया, तो जेन-ज़ी के वास्तविक मुद्दों को नज़रअंदाज़ किया जाएगा।

राजनीतिक बयानबाज़ी और उसका असर

देश के विपक्षी नेताओं, विशेष रूप से लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी द्वारा समय-समय पर दिए जाने वाले सरकार-विरोधी बयान भी इस माहौल को और भड़का सकते हैं। जब संवैधानिक संस्थाओं, जैसे निर्वाचन आयोग, पर सार्वजनिक रूप से सवाल उठाए जाते हैं और उसे “गद्दी छोड़” जैसे नारों में बदल दिया जाता है, तो यह युवाओं के मन में असंतोष पैदा करता है। हालांकि लोकतंत्र में आलोचना जरूरी है, परंतु उसे रचनात्मक बनाना भी उतना ही आवश्यक है। ऐसे में विपक्षी दलों को यह ध्यान रखना चाहिए कि उसकी आलोचना युवाओं के भीतर हिंसा नहीं, संवाद को जन्म दे।

समाधान की ओर कदम

लेह-लद्दाख की घटना को न तो केवल सुरक्षा दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए, और न ही इसे केवल राजनीतिक बहस का विषय बनाकर छोड़ देना चाहिए। यह भारत के युवा मानस को समझने, उसका विश्वास जीतने और उसे सकारात्मक दिशा देने का अवसर है। यदि सरकार ने इस चेतावनी को समय रहते समझ लिया, तो न केवल लद्दाख, बल्कि पूरे देश में लोकतंत्र की जड़ें और मजबूत होंगी। परंतु यदि इसे अलगाववाद कहकर नज़रअंदाज़ किया गया, तो यह चिंगारी भविष्य में एक भयंकर अग्निकांड में बदल सकती है।

सरकार के लिए पांच मुख्य सबक

संवाद को प्राथमिकता दें: युवाओं को साथ लेकर चलने की ज़रूरत है। वर्षों से लंबित मांगों पर चर्चा के लिए विशेष समिति बनाई जाए।

बेरोज़गारी के मुद्दे पर गंभीर प्रयास: क्षेत्र में स्किल डवलपमेंट, पर्यटन और सस्टेनेबल इंडस्ट्री को बढ़ावा देकर रोजगार के नए अवसर उत्पन्न किए जाएं।

छठी अनुसूची पर पुनर्विचार: स्थानीय समुदायों की भावनाओं को सम्मान देना आवश्यक है। यह संवैधानिक उपाय उनके अधिकारों की सुरक्षा कर सकता है।

राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप से दूरी: हर आंदोलन को देशद्रोह या अलगाववाद का नाम देना समाधान नहीं है।

युवा नेतृत्व को मंच दें: लद्दाख के युवाओं को प्रतिनिधित्व देने के लिए पंचायत, विकास परिषद या यूथ फोरम जैसी संस्थाएं स्थापित की जाएं।

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