Bihar Assembly Elections: मूलभूत मुद्दों के बजाय जातीय समीकरण पर जोर

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बिहार विधानसभा चुनाव की तिथियां भले ही घोषित नहीं हुई हैं लेकिन राजनीतिक दलों ने अपने चुनाव प्रचार को धार देना शुरू कर दिया है। सत्ता पक्ष एनडीए और मुख्य विपक्षी दल इंडिया गठबंधन मतदाताओं को लुभाने के लिये नये नये वादे और घोषणायें कर रहा है। चुनावी माहौल इतना संवेदनशील हो गया है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष एक दूसरे पर अपने मुद्दे की नकल करने या चुराने के आरोप तक लगा रहें हैं। इन सबके बीच एक महत्वपूर्ण बदलाव यह दिख रहा है कि चुनाव में राजनीतिक दलों के साथ-साथ आम मतदाता भी पुराने मुद्दों से किनारा कर रहा है।

Bihar Assembly Elections: मूलभूत मुद्दों के बजाय जातीय समीकरण पर जोर

बिहार विधानसभा चुनाव से पहले आईओएन भारत ने बिहार के सभी 243 विधानसभा क्षेत्रों में 5000 लोगों से सम्पर्क करके चुनाव के मुद्दों को जानना चाहा। सर्वे में शामिल कुल 11 विकल्पों में से एक ऐसा विकल्प (मुद्दा) चुनने की बाध्यता थी जिसे वह प्राथमिकता देता है। सर्वे के आंकड़े अप्रत्याशित और चैंकाने वाले आये हैं क्योंकि 1720 लोगों अर्थात 34.4 प्रतिशत लोगों ने स्वीकार किया कि वह जातीय समीकरण के आधार पर मतदान करेंगे। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की भूमिका को लेकर बन रहा अनिश्चितता का वातावरण भी मतदान का बड़ा मुद्दा है। 19.6 प्रतिशत लोगों ने माना कि चुनाव में यह प्रकरण मतदान को प्रभावित करेगा। 

बिहार की बड़ी समस्या भूमि विवाद और बिगड़ती कानून व्यवस्था को मात्र 14.7 प्रतिशत लोगों ने अपना मुद्दा माना है। सरकार की जनकल्याण योजनाओं से 9.8 प्रतिशत,जातिगत जनगणना से 7.9 प्रतिशत मतदाता प्रभावित दिखे। बिहार की मूलभूत समस्याओं, दिनों दिन बढता पलायन, बेरोजगारी का मुद्दा काफी पीछे छूटता नजर आया। भ्रष्टाचार को तो मात्र 0.8 प्रतिशत लोगों ने निर्णायक बताया। विपक्ष के इस मुद्दे को जनता ने मात्र राजनीतिक बयानबाजी करार दिया है। सबसे उल्लेखनीय तो यह है कि एसआइआर और वोट चोरी का मुद्दा हो या आपरेशन सिंदूर सर्वे में लोगों को प्रभावित करता नहीं दिखा। लोगों इसे राजनीतिक प्रचार अभियान का हिस्सा माना है। यद्यपि इस सर्वे को बिहार के 7.64 करोड़ मतदाताओं की आवाज नहीं कहा जा सकता है लेकिन इतना तो तय है कि बिहार के मतदाताओं के मन में क्या कुछ चल रहा है उसकी बानगी जरूर है।

विपक्षी दलों का भी सच से किनारा

विपक्ष के महागठबंधन की कमान तेजस्वी यादव के पास है। हाल ही में उन्होंने राहुल गांधी के साथ वोटर अधिकार यात्रा निकाली, जिसमें मुख्य फोकस एसआइआर और वोट चोरी पर था लेकिन जब लगा कि यात्रा और मुद्दों से माहौल नहीं बना तो तेजस्वी यादव ने ‘चलो बिहार,बदलो बिहार’ का नया नारा देते हुये 16 सितम्बर से बिहार अधिकार यात्रा निकाल रहें है। इसमें वह बेरोजगारी, पलायन, अपराध और किसानों की समस्याओं को उठा रहें है। प्रदेश को गरीबी से निजात दिलाने के लिये फैक्ट्री और बडे उद्योग स्थापित करने का आश्वासन दे रहे हैं जिससे रोजगार के अवसर बढ़ सके। अपनी सभाओं में सामाजिक समरसता पर भी जोर दे रहें हैं ताकि वाईएम फैक्टर के साथ अन्य पिछड़ी जातियों और दलितों के वोट में सेंध लग सके।

विकास पर सत्ता का फोकस

प्रदेश में सत्तारूढ़ एनडीए का मुख्य फोकस सुशासन और पिछले पांच वर्षो में सरकार की ओर से कराये गये विकास कार्यो के साथ विभिन्न क्षेत्रों में आये सुधार पर है। सत्ता दल अपनी उपलब्धियों में केन्द्र सरकार की तमाम जनकल्याणकारी योजनाओं जैसे पीएम आवास,किसान सम्मान, आयुष्मान भारत को भी शामिल कर रहा हैं। सत्तासीन एनडीए  कानून व्यवस्था के मुद्दे पर अभी भी अपनी पिछली सरकारों के जंगलराज से तुलना करते हुये बेहतर कानून व्यवस्था का दावा करती है। सरकार के पास भी प्रदेश को गरीबी से निजात दिलाने, युवाओं को रोजगार मुहैया कराने, प्रतिदिन रोजगार की तलाश में बिहार से बड़े शहरों की ओर पलायन कर रहे लाखों लोगों को रोकने की कोई कार्ययोजना सामने दिखायी नहीं पड़ती है। 

मुद्दे जो पर्दे के पीछे हो गये

बिहार का जिक्र आते ही जेहन में जो तस्वीर बनती है उसमें गरीबी,अशिक्षा, बेरोजगारी,  अपराध और पलायन साफ दिखायी पड़ते है। बिहार की सामाजिक संरचना में मुख्यतः दो वर्ग है सर्वाधिक धनी और सर्वाधिक निर्धन। मध्यम वर्गीय परिवारों की संख्या सीमित है। बिहार के संदर्भ में धनी और निर्धन के बीच की खांई लगातार बढती जा रही है। आजादी के बाद लम्बे समय तक सत्तारूढ़ सरकारों ने बुनियादी शिक्षा के साथ साथ तकनीकी शिक्षा और रोजगारपरक शिक्षा के लिये कुछ विशेष नहीं किया। यही कारण है कि बिहार का युवा बेहतर शिक्षा के लिये आज भी वाराणसी, प्रयागराज,नोयड़ा के साथ दिल्ली, कोटा की राह पकड़ता है। शिक्षा के अभाव में निर्धन परिवार के बच्चे खेतिहर और मजदूर बन कर रह गये हैं। कभी अपराध बिहार का पर्याय हुआ करता था। लालू यादव के राज में बिहार पर जंगलराज का ऐसा ठप्पा लगा कि तेजस्वी यादव आजतक उससे पीछा नहीं छुड़ा सके। 

बार-बार शर्मसार होता बिहार

रोजगार की तलाश में दर-दर भटकते बिहारवासियों को देश के अन्य राज्यों में जितना अपमान, तिरस्कार मिल रहा है उतना किसी अन्य राज्य के नागरिकों के साथ नहीं होता है। कभी महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे कहते हैं कि बिहार के लोगों के लिये परमिट सिस्टम लागू करेंगे तो मनसे अध्यक्ष राज ठाकरे एक कदम आगे बढ़ कर बोलते हैं कि बिहारी घुसपैठिये हैं और वह उन्हें भगायेंगे। इनके कारण ही महाराष्ट्र में अपराध बढ़ा है। तमिलनाड़ु में डीएमके नेता कहते हैं कि बिहार से आने वाले निर्माण कार्य करते हैं या फिर शौचालय और सड़क साफ करते है। तेलंगाना के वर्तमान मुख्यमंत्री ने तो बिहार के डीएनए पर सवाल उठाते हुये कहा कि बिहार के डीएनए से तेलंगाना डीएनए बेहतर है। पंजाब के मुख्यमंत्री चन्नी यूपी कि साथ बिहारियों को अपमानित करते हुये कहा था कि बिहार के भइया को पंजाब में फटकने नहीं देना है। दुर्भाग्य यह है कि प्रियंका गांधी बगल में खड़ी होकर ताली बजा रहीं थीं। अभी हाल के दिनों में केरल कांग्रेस के एक ट्वीट में कहा गया कि बी से बिहार और बी से बीड़ी यानि अब बीड़ी को बिहार का पर्याय बना रहे हैं। बार बार शर्मसार होते बिहार की मर्यादा को बचाने के लिये आज कोई राजनीतिक दल आगे नहीं आ रहा है बल्कि राहुल गांधी ने अपनी वोटर अधिकार यात्रा में इन विवादास्पद नेताओं को शामिल भी किया।  

मुद्दों पर भारी जातीय और धार्मिक समीकरण

बिहार के विकास में बाधा बन रहे मूलभूत मुद्दों पर राजनीतिक दल चुनावों में चर्चा नहीं करते हैं क्योंकि वह अब जाति और धर्म की राजनीति को प्रमुखता दे रहें हैं। अब राजनीतिक दलों का फोकस मुद्दों के बजाय जातीय समीकरण को साधना है। वह अपनी पार्टी से जुड़े जाति के वोट बैंक को साधने पर जोर देता है। आरजेडी चुनावों में अपने एमवाई समीकरण को साधने पर जोर देती आ रही है। पिछले चुनावों में उसे 75 प्रतिशत यादव और मुस्लिमों ने वोट दिये। आरजेडी ने अपनी 144 सीटों में से 58 सीटें यादव और 18 सीटें मुसलमानों को दी थी। भाजपा परद भी हिन्दुत्व की राह पर चलने का आरोप लगता है।

मुफ्त की रेवड़ी को मिलती प्राथमिकता

पिछले लगभग डेढ़-दो दशक से राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणापत्रों में मुफ्त  और कर्ज माफी के वादों जैसी घोषणाओं ने मुलभूत मुद्दों को पीछे ढ़केलने का काम किया है। किसानों की कर्ज माफी, नलकूपों के लिये फ्री बिजली, घरों के लिये मुफ्त पानी,बिजली, लाडली बहना योजना जैसी तमाम तात्कालिक लाभ की योजनाओं ने लोगों के जेहन से मुख्य मुद्दों को विस्मृत करने का काम किया है। 

भावनात्मक मुद्दों पर जोर 

कई बार पार्टियों द्वारा मतदाताओं का ध्यान हटाने के लिये भावनात्मक मुद्दे धार्मिक नारे, व्यक्तिगत हमले, चरित्र हनन या फिर ऐतिहासिक विवाद को आगे कर दिया जाता हैं जिसमें जनता उलझ जाती है और अपनी असल समस्या भूल जाती है। प्रत्येक चुनाव में राजनीतिक विवाद,भाषण अथवा गैर जरूरी मुद्दे बहस का विषय बन जाते है और इनको इतना मीडिया कवरेज मिल जाता है कि सारे मुद्दे शांत हो जाते है।

बिहार में आसन्न विधानसभा चुनाव में क्या मूलभूत मुद्दे चुनावी घोषणापत्रों में स्थान बना पायेंगे के सवाल पर वरिष्ठ पत्रकार भारत सिंह कहते हैं कि इस बार कुछ उम्मीदें हैं क्योंकि बिहार का युवा अब जागरुक हो रहा है और देश के कई राज्यों में शर्मसार करती घटनाओं ने भी बिहार के आम मतदाताओं को सोचने पर मजबूर किया है।

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