आजादी के पर्व 15 अगस्त की आहट साफ सुनाई दे रही है। सार्वजनिक स्थलों, कार्यालयों, संस्थाओं से लेकर लोगों के घरों पर तिरंगा लहरा रहा है। शहर से लेकर गांव तक की सड़कों, गलियों, दलित और उपेक्षित बस्तियों में बधाई संदेश देते बड़े-बड़े पोस्टर, बैनर स्वतंत्रता दिवस की याद दिला रहे हैं, लेकिन इस उत्सव में शहीदों की यातनाओं के मौन साक्षी रहे वृक्षों को सबने भुला दिया है।
सार्वजनिक फांसी का चलन
देश में आधिपत्य जमाए अंग्रेजों को कभी यह अहसास नहीं रहा होगा कि भारत के लोग उन्हें देश छोड़ने को मजबूर कर सकते हैं। 1857 का विद्रोह जब शुरू हुआ तो अंग्रेजी हुकूमत ने विद्रोह को ताकत से दबाने के लिए विद्रोही भारतीय सैनिकों के साथ-साथ समाज में विद्रोह को समर्थन करने वाले आम भारतीयों पर बहुत ही अमानवीय अत्याचार किए। विद्रोह करने वाले अथवा विद्रोहियों का साथ देने वालों को सजा के रूप में खुलेआम गोली मार देना, फांसी पर लटका देना सामान्य बात थी। उस समय के न्यायालय भी अंग्रेज शासकों के इशारे पर निर्णय देते थे। अंग्रेज अफसर कहीं भी कोर्ट लगाकर विद्रोहियों को फांसी की सजा सुना देते थे। बड़ी संख्या में फांसी देने और देशवासियों को भयभीत करने के लिए आज की भाषा में तालिबानी सजा अर्थात खुलेआम फांसी दिए जाने का प्रचलन चला। देश में सार्वजनिक स्थलों के पास मौजूद मजबूत वृक्षों, नीम या इमली के पेड़ों पर हजारों लोगों को फांसी दे दी गई। उनमें से तमाम वृक्ष आज भी मूक साक्षी बनकर चट्टान की तरह खड़े दिखते हैं, लेकिन उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। प्रयागराज और उसके समीप फतेहपुर में मौजूद नीम और इमली के तीन वृक्षों से जुड़ी कहानियां आज भी भयभीत करती हैं।
नीम का पेड़
प्रयागराज में पुरानी जीटी रोड पर बसे चौक बाजार में स्थित नीम के पेड़ पर अंग्रेज अधिकारियों ने 600 से अधिक क्रांतिकारियों को फांसी पर लटका दिया। जीटी रोड के किनारे खड़े सात नीम के पेड़ों को अंग्रेजों ने उस समय फांसीघर में बदल दिया था। 1857 की क्रांति में भागीदार बन रहे नगर के दयाल, खुदाबख्श, कल्लू, अमीरचंद, मीर सलामत अली, लाल खां, हसन खां आदि को अलग-अलग तारीखों में फांसी की सजा सुनाकर खुलेआम नीम के पेड़ पर लटका दिया गया। मौलवी लियाकत अली के विद्रोह से बौखलाए शासकों ने बड़ी संख्या में विद्रोहियों और मेवाती मुसलमानों को भी इसी नीम के पेड़ पर फांसी पर लटका दिया। कहा जाता है कि लगभग 600 स्वतंत्रता सेनानियों को एक साथ फांसी दे दी गई। प्रयागराज स्थित अभिलेखागार में उपलब्ध अभिलेखों में फांसी की सजा पाने वालों के नाम तो दर्ज हैं, परंतु उनसे संबंधित अन्य विवरण दर्ज नहीं हैं, जिसके कारण वे सभी अनजान शहीद की श्रेणी में सिमट गए हैं। उस समय कुल सात नीम के वृक्षों का जिक्र मिलता है, लेकिन समय के साथ उनमें से 6 वृक्षों का अस्तित्व समाप्त हो चुका है, मात्र एक पेड़ ही आज बलिदान की गवाही देने के लिए खड़ा है।
उपेक्षा का शिकार
शहीदों की मौन गाथा सुनाने वाला नीम का पेड़ आज भी वहीं पर खड़ा है, जिसके आस-पास बड़ी संख्या में दुकानें चल रही हैं। पर्याप्त देखरेख के अभाव में अब यह पेड़ भी सिकुड़ रहा है, उसकी डालियां कमजोर होकर टूट रही हैं। 15 अगस्त और 26 जनवरी जैसे पर्वों पर लोग औपचारिकता का निर्वहन करके चले जाते हैं। मुख्य बाजार के बीच स्थित इस पेड़ के महत्व से अधिकांश लोग अनजान ही हैं। कुछ समय पहले यहां शहीद स्मारक की योजना बनी, लेकिन सामने मार्ग पर यातायात प्रभावित होने का तर्क देकर प्रस्ताव पर विराम लगा दिया गया।
फांसी इमली
प्रयागराज के चैफटका मुहल्ले में गढ़वा गर्ल्स इंटर कॉलेज के सामने शेरशाह सूरी के जीटी रोड पर ही फांसी इमली के नाम से प्रसिद्ध इमली का एक पेड़ है। 1857 में हुई बगावत से नाराज अंग्रेजों ने विद्रोहियों को गिरफ्तार करना शुरू कर दिया। जिन सेनानियों को आस-पास पकड़ा जाता, उन्हें अदालत से सजा सुनाने के बाद इसी इमली के पेड़ पर फांसी दी जाती थी। यहां लगे एक पुराने टिन के बोर्ड पर लिखी बातों पर यकीन करें तो इस पेड़ पर 100 लोगों को फांसी दी गई थी, हालांकि तमाम इतिहासकार इस संख्या पर एकमत नहीं हैं।
ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों के साक्षी इस पेड़ को संजोने के लिए प्रशासन द्वारा अब तक कोई ठोस प्रयास नहीं किया गया है। फांसी इमली की दास्तान सरकारी अभिलेखों में भी दर्ज है। इस फांसी इमली के चबूतरे पर लोग बैठकर समय व्यतीत करते मिल जाएंगे। पहले तमाम स्थानीय दुकानदार चबूतरे पर अपना सामान फैलाकर बेचा करते थे, लेकिन अब रोक लग गई है। आसपास जरूर ठेलों पर नारियल पानी, चाट-फुल्की या मोबाइल के सामान बेचने वाले मिल जाएंगे। बताया जाता है कि राम सिंह एडवोकेट द्वारा अपने संसाधनों से इस इमली के पेड़ के नीचे चबूतरे के साथ भारत माता और भगत सिंह जी की मूर्तियां लगाई गई हैं। यहां आजाद की भी एक मूर्ति लगी है। यह सब कुछ मात्र 10 फीट के घेरे में ही है। यहां के विकास में बड़ी बाधा स्थल के ठीक पीछे वायुसेना की भूमि का होना बताया जाता है।
52 शहादत की साक्षी बावनी इमली
फतेहपुर जिले में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के 52 शहीदों की शहादत की साक्षी बिंदकी तहसील के पास खजुहा गांव में स्थित बावनी इमली है। 10 मई 1857 को बैरकपुर छावनी में मंगल पांडे के बगावत की आग 10 जून को फतेहपुर में धधक उठी। रसूलपुर गांव के ठाकुर जोधा सिंह अटैया अपनी छोटी सी फौज बनाकर अंग्रेजों के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया। जोधा सिंह नाना साहब के करीबी माने जाते थे। जोधा सिंह लंबे समय तक अंग्रेजों से मुकाबला कर उन्हें परास्त करते रहे। जोधा सिंह के विद्रोह को समाप्त करने के लिए कर्नल पावेल को भेजा गया, लेकिन जोधा सिंह ने गुरिल्ला युद्ध की नीति अपनाकर पावेल को मार दिया। बौखलाई अंग्रेजी हुकूमत ने क्रूर शासक कर्नल नील के नेतृत्व में सेना भेजी।
35 दिनों तक डालियों पर झूलती रही लाशें
कर्नल नील ने जोधा सिंह की सेना को बहुत नुकसान पहुंचाया। जोधा सिंह को छद्मवेश में फिर से सेना का गठन और धन की व्यवस्था करनी पड़ी थी। अंग्रेजी सेना से बचने के लिए उन्होंने अपना ठिकाना फतेहपुर से बदलकर खजुहा में बनाया। इसी बीच एक दिन जोधा सिंह अर्गल नरेश से संघर्ष की अगली रणनीति पर विचार-विमर्श कर खजुहा लौट रहे थे, तभी किसी मुखबिर ने कर्नल नील को सूचना दे दी। कर्नल नील की घुड़सवार सेना ने घोरहा गांव के पास जोधा सिंह और उनकी सेना को घेर लिया और कड़े संघर्ष के बाद जोधा सिंह और उनकी सेना को गिरफ्तार कर लिया गया। कई दिनों तक यातनाएं दिए जाने के बाद 28 अप्रैल 1858 को जोधा सिंह और उनके 51 साथियों को एक साथ इसी इमली के पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दी गई। यह घटना देश की क्रूरतम घटनाओं में से एक थी, क्योंकि ऐलान किया गया कि जो भी इनकी लाश को उतारेगा, उसे भी फांसी दे दी जाएगी। सेनानियों की लाश 35 दिन तक इमली के पेड़ पर लटकती रही। उसके बाद एक स्थानीय राजा ने क्रांतिकारियों के सहयोग से उन कंकालों को उतारकर गंगा में दाह संस्कार किया।
52 स्वतंत्रता सेनानियों की शहादत की साक्षी ‘बावनी इमली’ का पेड़ आज देश की धरोहर है। सेनानियों की याद बनाए रखने के लिए यहां जोधा सिंह की मूर्ति लगाई गई है तथा पेड़ के नीचे 52 छोटे स्तंभ लगाए गए हैं, जो शहीदों की कुर्बानी की याद ताजा करते हैं। इस स्थल को विकसित करने की मांग लगातार हो रही है। देश में इस प्रकार के वृक्षों की संख्या बहुतायत थी, लेकिन तमाम झंझावातों से गुजरने के दौर में अधिकांश का अस्तित्व समाप्त हो चुका है। अब बचे हुए इन चंद वृक्षों को नहीं बचाया गया तो भविष्य में शहीदों की यातनाओं के ये मौन साक्षी इतिहास के पन्नों में सिमट जाएंगे।
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