'हिंदी पत्रकारिता दिवस पर विशेष'
एक दौर था, जब पत्रकारिता मिशन हुआ करती थी। उस मिशन में अपना सबकुछ गंवाकर भी आहुति देने वाले ‘पत्रकार’ कहे जाते थे। आज पत्रकारिता मिशन तो नहीं रही, लेकिन पत्रकारीय पेशा जरूर संकट में है। अब पत्रकारिता से जुड़े लोग खुद को पत्रकार बताने में हिचकते हैं, क्योंकि समाज में हजारों की संख्या में लोग खुद को पत्रकार बताकर मिशन की जगह कमीशन पर रौब गांठते नजर आते हैं। ऐसे लोगों की वजह से पत्रकारिता संक्रमण के दौर से गुजर रही है। आधुनिक युग में डिजिटल प्लेटफार्म ने खबरों के आदान-प्रदान को जितना सरल बनाया है, विश्वसनीयता का संकट भी उतनी ही तेजी से बढ़ रहा है।
सोशल मीडिया के माध्यम से तमाम ऐसी सूचनाएं प्रचारित और प्रसारित की जाती हैं, जो फेक न्यूज की श्रेणी में आती हैं। इन खबरों का सच्चाई से कोई लेना-देना नहीं होता है, लेकिन वो कम समय में बहुत तेजी से लाखों लोगों तक पहुंच जाती हैं। जब तक खबरों की सच्चाई का पता चलता है, तब तक फेक न्यूज को हजारों लोग सच मानकर प्रतिक्रिया देने लगते हैं। यह कई बार अशांति का कारण भी बन जाता है। ऐसे में पत्रकार और पत्रकारिता के समक्ष ‘विश्वसनीयता’ की बड़ी चुनौती है, तो सरकार के समक्ष प्रिंट, इलेक्ट्रानिक और सोशल मीडिया के माध्यम से प्रसारित होने वाली खबरों व सूचनाओं के नियंत्रण का संकट है। अब बदलते दौर में खांटी पत्रकारों का मिलना और अखबारों व पत्रिकाओं में जनता से जुड़े मुद्दों पर कलम चलाने वाले लेखों का मिलना बड़ी बात है, क्योंकि बाजारवाद ने पत्रकारीय पेशे को पूरी तरह से अपनी गिरफ्त में ले लिया है। इसलिए पत्रकारिता को जिंदा रखने के लिए ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ पत्रकारों को बढ़ावा देना जरूरी है। इसके लिए सरकार को मीडिया संस्थानों के साथ मिलकर काम करना होगा।
हमारा देश तेजी से डिजिटल हो रहा है। अब शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में अपने आस-पास की किसी भी घटना का वीडियो बनाकर या फोटो लेकर दो-चार लाइनें लिखना और उसे सोशल मीडिया पर डाल देना भी खबरों की दुनिया में लोकप्रिय बना देता है। सोशल मीडिया प्लेटफार्म-फेसबुक, इंस्टाग्राम और एक्स पर बहुत से यूजर्स ऐसे हैं, जिनके फॉलोअर्स की संख्या लाखों में हैं, ऐसे लोगों की एक पोस्ट चंद सेंकेंड में लाखों लोगों तक पहुंच जाती है। हम अपने आस-पास बहुत से ऐसे लोगों को देखते हैं, जो हाथ में मोबाइल और माइक लेकर किसी घटना की वीडियो बनाते हैं, उस पर कुछ लोगों की राय लेते हैं, फिर उसे एडिट कर अपने यू-ट्यूब चैनल, वेबसाइट या सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अपलोड कर देते हैं। इन प्लेटफार्म का इस्तेमाल लोगों को बदनाम करने और ब्लैकमेल करने में भी किया जाने लगा है। जो सबसे बड़ी चिंता का विषय है। वहीं, दूसरी तरफ अनेकों यू-ट्यूब चैनल्स और वेबसाइट्स आज भी जनता से जुड़ी सच्ची खबरों को प्रमुखता से दिखाते हैं। यहां सरकार के अच्छे कामों की प्रशंसा होती है, तो जनता की सुनवाई नहीं होने पर, सरकारी विभागों एवं संस्थानों में कुछ भी गलत होने पर आलोचना और घोटालों का खुलासा भी खबरों के माध्यम से किया जाता है।
एक वो दौर था, जब पत्रकारिता का मतलब प्रिंट मीडिया यानी अखबार और मैगजीन से होता था। आज सब कुछ डिजिटल होने के कारण अखबार और मैगजीन निकालना पहले के मुकाबले काफी खर्चीला हो गया है। डिजिटल मीडिया के दौर में विज्ञापन के माध्यम से होने वाली अखबारों की कमाई भी ऊंट के मुंह में जीरा साबित हो रही है। ऊपर से सरकार की तरफ से अखबारों की छपाई में इस्तेमाल होने वाले कागज पर मिलने वाली सब्सिडी और सरकारी विज्ञापन भी लगातार कम हो रहे हैं। अब कुछ चुनिंदा अखबारों और न्यूज चैनल्स को ही विज्ञापन दिए जाते हैं। मीडिया संस्थानों में कर्मचारी और खर्चे कम करने पर अधिक जोर दिया जा रहा है। वहीं, दूसरी तरफ मीडिया से जुड़े लोगों के लिए अपनी नौकरी और पत्रकारीय पेशे की साख बचाना चुनौतीपूर्ण बनता जा रहा है। इसलिए आजादी के दौर में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली पत्रकारिता को बचाने के लिए सरकार और मीडिया को मिलकर काम करना होगा। यदि हम मीडिया में ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ लोगों को बढ़ावा देने तथा फेक न्यूज पर लगाम लगाने में कामयाब हो जाते हैं, तो सच्चे अर्थों में यही हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत करने वालों को सच्ची श्रद्धाजलि होगी।
हिंदी पत्रकारिता के लिए 30 मई का दिन अत्यंत महत्वपूर्ण है। देश में पहली बार वर्ष 1826 में 30 मई को हिंदी भाषा में ‘उदन्त मार्तण्ड’ के नाम से पहला समाचार पत्र छपा था। इसीलिए इस तिथि को ‘हिंदी पत्रकारिता दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने वर्तमान में कोलकाता और तत्कालीन कलकत्ता से ‘उदन्त मार्तण्ड’का साप्ताहिक तौर पर प्रकाशन शुरू किया था। इस समाचार पत्र के प्रकाशक और संपादक की जिम्मेदारी भी उन्होंने खुद ही संभाली थी। उत्तर प्रदेश में कानपुर निवासी जुगल किशोर शुक्ल पेशे से वकील थे, लेकिन उन्होंने जन्मभूमि से सैकड़ों किलोमीटर दूर कलकत्ता को अपनी कर्मस्थली बनाया। जब देश में अंग्रेजों का औपनिवेशिक शासन था, तब उन्होंने देशवासियों के हक की बात करने का क्रांतिकारी कार्य किया। उन्होंने कलकत्ता के बड़ा बाजार इलाके में अमर तल्ला लेन, कोलूटोला से साप्ताहिक ‘उदन्त मार्तण्ड’ का प्रकाशन शुरू किया।
दरअसल, उस दौर में अंग्रेजी शासकों की भाषा में अंग्रेजी के बाद बांग्ला और उर्दू का प्रभाव था। इसलिए उस समय अंग्रेजी, बांग्ला और फारसी में कई समाचार पत्र निकलते थे, लेकिन हिंदी भाषा का एक भी समाचार पत्र मौजूद नहीं था। इस लिहाज से ‘उदन्त मार्तण्ड’ जुगल किशोर का साहसिक प्रयोग माना जाता है। इस साप्ताहिक समाचार पत्र के पहले अंक की 500 प्रतियां छपी थीं। तब समाचार पत्र डाक से भेजना पड़ता था। डाक दरें बहुत ज्यादा होने की वजह से इसे हिन्दी भाषी राज्यों में भेजना भी महंगा पड़ता था। आर्थिक तंगी की वजह से ‘उदन्त मार्तण्ड’ का प्रकाशन बहुत दिनों तक नहीं हो सका और आखिरकार 04 दिसम्बर 1826 को इसका प्रकाशन बंद कर दिया गया।
हिंदी पत्रकारिता में जोश और जुनून भरने का कार्य गणेश शंकर विद्यार्थी ने किया। उन्होंने उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर से 9 नवंबर 1913 को 16 पृष्ठ का ‘प्रताप’ समाचार पत्र शुरू किया था। यह काम शिव नारायण मिश्र, गणेश शंकर विद्यार्थी, नारायण प्रसाद अरोड़ा और कोरोनेशन प्रेस के मालिक यशोदा नंदन ने मिलकर किया था। इन चारों क्रांतिकारी पत्रकारों ने अपने पास से सौ-सौ रुपये की पूंजी लगाई थी। अखबार की शुरुआत के पहले साल से ही पृष्ठों की वृद्धि का सिलसिला बढ़ा तो फिर बढ़ता ही चला गया। आज डिजिटल व सोशल मीडिया का दौर आ चुका है। इंसान को खबरें जानने के लिए अब सुबह होने, पेपर छपने और घर तक पहुंचने का इंतजार नहीं करना पड़ता है। अब पल-पल की खबरें हमारे मोबाइल पर इंटरनेट के माध्यम से आ जाती हैं, क्योंकि खबरें डिजिटल प्लेटफार्म यानी न्यूज चैनल, वेबसाइट और यूट्यूब के अलावा सोशल मीडिया के माध्यम से भी तेज गति से हमारे पास पहुंचने लगी हैं। बदलते दौर में पत्रकारिता आसान हो गई है, लेकिन खबरों की विश्वसनीयता का संकट बरकरार है।
प्रभात तिवारी
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