मोदी सरकार के जातिगत ’धमाके’ से देश चकित, विपक्ष चित्त !

खबर सार : -
सालों से राजनीतिक प्रचार की धुरी बन चुके जातिगत जनगणना को अब मोदी सरकार ने अमलीजामा पहनाने की तैयारी कर ली है। सरकार के इस फैसले का देश की राजनीति पर गहरा असर पड़ने वाला है और कहा जा रहा है कि देश में फिर मंडल-कमंडल राजनीति की वापसी हो सकती है।

खबर विस्तार : -

अमित झा

केंद्र सरकार देश में अगली जनगणना में जातियों की भी गिनती करेगी। 30 अप्रैल को केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने इसकी जानकारी दी। राजनीतिक मामलों पर कैबिनेट कमेटी की बैठक में लिए गए सरकार के इस फ़ैसले की जानकारी देते बताया कि अगली जनगणना में जातियों की गिनती भी की जाएगी। जनगणना केंद्र का विषय है। अब तक कुछ राज्यों में किए गए जातिगत सर्वे पारदर्शी नहीं थे। यह कदम सामाजिक और आर्थिक समानता को बढ़ावा देगा। नीति निर्माण में पारदर्शिता सुनिश्चित करेगा। अब इसके बाद सवालों का सिलसिला शुरू है कि अब तक जातिगत जनगणना से कतरा रही मोदी सरकार, इसके लिए राजी क्यों हो गई ? पिछले दिनों पहलगाम (जम्मू-कश्मीर) में हुए आतंकी हमले के बाद दो दर्जन से अधिक पर्यटक मारे गये थे। लोगों में इसे लेकर उबाल था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों की बैठक लगातार होती दिखी। लग रहा था कि पाकिस्तान के खिलाफ कुछ बड़ा होने की खबर सामने आएगी, पर खबर आई जातिगत गणना के धमाके वाली। देश में आजादी के बाद पहली बार ऐसा होगा, जब जातिगत जनगणना कराये जाने का फैसला केंद्र सरकार ने सुनिश्चित किया है।

पिछले कुछ समय से विपक्षी दल इस विषय पर अपने अपने हिसाब से सियासत करते रहे कि जाति भी गिनी जाए। उसी अनुसार आरक्षण सीमा बढ़ाकर जातियों को लाभ मिले। पहले तो इसे लेकर भाजपा ने ना नुकूर किया। इसे देश की एकता के लिए बाधक बताया। जातिगत जनगणना के नुकसान बताये जाते रहे। अब पूरी पार्टी मिलकर इसके फायदे बताने के नए रोजगार पर लग गयी है। विपक्षी दलों की सियासत पर भाजपा की ओर से सोशल मीडिया पर कहा जाता रहा कि जाति जनगणना हुई तो देश टूट जाएगा। अब आईटी सेल इसको मोदी का मास्टरस्ट्रोक बताने के मिशन पर है। कहा जा रहा कि इससे विपक्ष और पाकिस्तान चारों खाने चित्त हो जाएगा। दुनिया के नक्शे से मिट जाएगा। भारत इस तरह आतंकवाद पर कड़ा प्रहार करेगा, चीन, अमेरिका भी थर-थर कांपेंगे, पर इधर सवाल और आशंकाओं का दौर भी शुरू है। यह कि आखिर कहीं यह फैसला केवल चुनाव जीतने का ही एकसूत्री कार्यक्रम है ? देश पर इतना बड़ा हमला हुआ है। देश एकजुटता दिखाते कुछ प्रभावी कदम उठाए जाने की आस में है, पर भाजपा केवल बिहार, यूपी और दूसरे राज्यों के चुनाव के लिए अपना पिच तैयार करने में लग गयी है।

जातिगत जनगणना की पृष्ठभूमि

सामान्य भाषा में समझा जाए तो जातिगत जनगणना की प्रक्रिया में देश की आबादी को उनकी जाति के आधार पर बांटा जाता है। देश में हर दस साल में जनगणना होती है। उसमें आमतौर पर आयु, लिंग, शिक्षा, रोजगार और अन्य सामाजिक-आर्थिक मापदंडों पर आंकड़ों को इकट्ठा किया जाता है। भारत में पहली जनगणना 1872 में हुई थी। 1881 से नियमित रूप से हर दस साल में यह प्रक्रिया शुरू हुई। देश में 1951 के बाद से जातिगत डेटा को इकट्ठा करना बंद कर दिया गया था, ताकि सामाजिक एकता को बढ़ावा मिले। जातिगत विभाजन को कम किया जा सके। फिलहाल केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या का आंकड़ा एकत्रित किया जाता है। अन्य पिछड़ा वर्ग और सामान्य वर्ग की जातियों का कोई आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। पिछले कुछ सालों में सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में बड़ा बदलाव आया है। अब ओबीसी समुदाय के लिए आरक्षण और कल्याणकारी योजनाओं की मांग बढ़ती जा रही है। ऐसे में जातिगत जनगणना की मांग फिर से जोर पकड़ने लगी है। 2011 में यूपीए सरकार ने सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना की थी। इसके आंकड़ों को विसंगतियों के कारण सार्वजनिक नहीं किया गया। बिहार, राजस्थान और कर्नाटक जैसे राज्यों ने स्वतंत्र रूप से जातिगत सर्वे किए। इनके नतीजों ने इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में ला दिया। कांग्रेस, राजद, सपा जैसे दल लंबे समय से इसकी मांग कर रहे थे। बीजेपी का सहयोगी दल जदयू भी जातीय जनगणना के पक्ष में था। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इसे सामाजिक न्याय का आधार बताते हुए 2024 के लोकसभा चुनाव में इसे प्रमुख मुद्दा बनाया था। क्षेत्रीय दलों का मानना है कि जातिगत आंकड़े नीति निर्माण में मदद करेंगे, जबकि केंद्र सरकार ने पहले इसे प्रशासनिक रूप से जटिल और सामाजिक एकता के लिए खतरा माना था।

अब सरकार बता रही जातिगत जनगणना के लाभ

जातिगत जनगणना के समर्थन में कहा जा रहा है कि यह सामाजिक न्याय और समावेशी विकास की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम होगा। केंद्र सरकार के मुताबिक, जातिगत आंकड़े सरकार को विभिन्न समुदायों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को बेहतर ढंग से समझने में मदद करेंगे। जैसे यह पता लगाया जा सकता है कि कौन सी जातियां शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य सेवाओं में सबसे ज्यादा वंचित हैं। इससे कल्याणकारी योजनाओं को और प्रभावी बनाया जा सकता है। भाजपा समर्थकों के मुताबिक, ओबीसी और अन्य वंचित समुदायों की सटीक जनसंख्या के अभाव में, आरक्षण नीतियों को लागू करना और संसाधनों का उचित वितरण करना मुश्किल रहा है। मंडल आयोग (1980) ने ओबीसी की आबादी को 52 प्रतिशत माना था, लेकिन यह अनुमान पुराने डेटा पर आधारित था। नए आंकड़े आरक्षण की सीमा और वितरण को और पारदर्शी बना सकते हैं। जातिगत जनगणना से उन समुदायों की पहचान हो सकेगी, जो ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहे हैं। जातिगत डेटा सामाजिक असमानताओं को उजागर करेगा। इससे सरकार और समाज को इन मुद्दों को संबोधित करने का अवसर मिलेगा। अगर किसी विशेष जाति की आय या शिक्षा का स्तर राष्ट्रीय औसत से काफी कम है, तो इसे सुधारने के लिए नीतियां बनाई जा सकती हैं।

आखिर क्यों भाजपा ने लिया यू-टर्न 

पिछले तीन दशकों से भी अधिक समय में भाजपा की राजनीति को देखें तो हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की तर्ज पर हिंदू-बहुल वोट बैंक को उसने मजबूत किया है। दूसरे दलों की अपेक्षा जाति से ऊपर उठने के लिए वोटरों को प्रेरित भी किया। मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली यूपीए सरकार की विदाई के बाद 2014 और 2019 के आम चुनावों और कई राज्य चुनावों में भाजपा को भारी जीत मिली थी। यह हर जाति के मतदाताओं का उसके लिए भरोसे का प्रमाण था। जाहिराना तौर पर अब सवाल उठ रहा कि आखिर भाजपा जैसी पार्टी जातिगत जनगणना नहीं कराने के अपने फैसले पर यू-टर्न क्यों ले चुकी है। भाजपा के इस फैसले को तकरीबन सभी दल अपनी अपनी जीत बता रहे हैं। कांग्रेस कह रही कि बीजेपी ने राहुल गांधी के लगातार दबाव के आगे घुटने टेक दिए। हालांकि, उसने सरकार से यह भी पूछा है कि सरकार स्पष्ट करे कि यह सब कब तक होगा। बहुजन समाजवादी पार्टी प्रमुख मायावती ने भी इसे सही फैसला बताया। टीडीपी नेता और आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने कहा कि यह समावेशी शासन के प्रति मोदी जी की गंभीर प्रतिबद्धता को रेखांकित करता है। बीजद अध्यक्ष नवीन पटनायक के मुताबिक, उनका संगठन लंबे समय से जातिगत गणना की मांग करता रहा है। हालांकि, इन सबके बीच भाजपा समर्थक इस कदम को मास्टरस्ट्रोक बता रहे हैं। उनका दावा है कि इसने बिहार विधानसभा चुनावों से पहले विपक्ष के मुख्य चुनावी मुद्दे की धार को खत्म कर दिया है।

केंद्रीय मंत्री अन्नपूर्णा देवी (सांसद, कोडरमा, महिला एवं बाल विकास मंत्री, भारत सरकार) के अनुसार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दूरदर्शी नेतृत्व में केंद्र सरकार द्वारा जातीय जनगणना को मंज़ूरी दिया जाना सामाजिक न्याय की दिशा में एक ऐतिहासिक एवं मील का पत्थर साबित होने वाला निर्णय है। इस महत्वपूर्ण पहल के माध्यम से दलित, आदिवासी, पिछड़े वर्गों सहित समाज के वंचित तबकों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति का वास्तविक और व्यापक आंकलन संभव होगा। इससे न केवल नीतियों का प्रभावी क्रियान्वयन होगा, बल्कि योजनाएं ज़मीनी हकीकत के अनुरूप बनेंगी, जिससे समावेशी विकास को नई गति मिलेगी। यह निर्णय केवल आंकड़ों का संग्रह नहीं है, बल्कि न्यायसंगत नीति निर्माण और सबका साथ, सबका विकास की भावना को सशक्त बनाने की दिशा में एक सशक्त आधारशिला है। मसला यह उठ रहा कि आखिर किन परिस्थितियों में केंद्र ने यह सब विचार किया। मोदी सरकार का ये फैसला आश्चर्यजनक है। जाति जनगणना को लेकर बीजेपी लंबे समय से अनिर्णीत रही है। आरोप है कि कांग्रेस के दबाव के कारण और सामाजिक न्याय की राजनीति दिखाने का फॉर्मूला भाजपा खोज रही है। पिछले कई समय से कांग्रेस के स्तर से कहा जाता रहा कि सत्ता में आने पर पूरे देश में जाति जनगणना की जाएगी। कर्नाटक में जहां वह सत्ता में है, कांग्रेस ने इस वादे को पूरा करने की दिशा में कदम उठाया। एससी-एसटी और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय 50 प्रतिशत की सीमा को बढ़ाने के लिए एक संवैधानिक संशोधन पारित करने का भी वादा किया है। ऐसे में आरक्षण की लिमिट बढ़ाने से ओबीसी और अन्य को लाभ होने की संभावना है। कांग्रेस को लगता है कि गुजरात में आयोजित पूर्ण अधिवेशन में सामाजिक न्याय को अपना मुख्य मुद्दा बनाकर वह ओबीसी वोट बैंक पर भाजपा की पकड़ में सेंध लगा पाएगी। उसे महसूस होता गया कि ओबीसी के बिना, वह आगे किसी भी चुनाव में बीजेपी के विजयी रथ को नहीं रोक सकती। बीजेपी जाति जनगणना कराने से कतराती रही है, क्योंकि वह पिछले कुछ वर्षों में ओबीसी का समर्थन मजबूत करने में सफल रही, जो 2009 में 22 प्रतिशत से दोगुना होकर 2019 में 44 प्रतिशत हो गया। प्रधानमंत्री और भाजपा के कई मुख्यमंत्री ओबीसी से आते हैं। पार्टी ने ओबीसी नेताओं को चुनाव टिकट और केंद्रीय और राज्य कैबिनेट भूमिकाओं के माध्यम से बहुत अधिक प्रतिनिधित्व दिया है। इस तरह उसने कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों से ओबीसी को अपनी ओर आकर्षित कर लिया। वैसे पिछले वर्ष 2024 के आम चुनावों में भाजपा ने उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन नहीं किया। अकेले दम पर उसे बहुमत नहीं मिला। 400 से ज्यादा सीटें उसे नहीं मिलीं जैसा कि चुनाव से पहले ’400 पार’ का नारा दिया गया था।

मंडल-कमंडल की राजनीति का पार्ट-2 शुरू होने का खतरा

जातिगत जनगणना के कई फायदे पिछले दो दिनों से केंद्र के स्तर से बताये जा रहे हैं लेकिन इसके संभावित नुकसान और जोखिम भी कम नहीं हैं। आलोचकों का मानना है कि यह सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर कई चुनौतियां पैदा कर सकता है। जातिगत जनगणना समाज में पहले से मौजूद जातिगत विभाजन को और गहरा कर सकती है। जातिगत आंकड़ों का उपयोग राजनीतिक दलों द्वारा वोट बैंक की राजनीति के लिए किया जा सकता है। क्षेत्रीय दल और जातिगत आधार पर संगठित पार्टियां इसका लाभ उठाकर सामाजिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा दे सकती हैं। इससे सामाजिक तनाव और हिंसा की संभावना बढ़ सकती है। जातिगत जनगणना से कुछ समुदायों की जनसंख्या अपेक्षा से अधिक हो सकती है, जिससे आरक्षण की सीमा बढ़ाने की मांग उठ सकती है। इस वजह से सामाजिक अशांति भी बढ़ सकती है। जनगणना का प्रभाव केवल सामाजिक और आर्थिक नीतियों तक सीमित नहीं रहेगा। यह भारत की राजनीति को भी गहरे रूप से प्रभावित करेगा। खासकर भाजपा को पसंद करने वाले उसके समर्थकों में भी कुछ आशंकाएं पैदा होने लगी हैं। ऐसे तो भाजपा का ये कदम विपक्ष के प्रमुख चुनावी मुद्दे को निष्क्रिय करने की रणनीति के रूप में देखा जा रहा है। आरक्षण की राजनीति और जातिगत जनगणना की मांग सामाजिक न्याय और पहचान की गहराई से जुड़ी हुई हैं, जिनसे बड़ी आबादी भावनात्मक रूप से जुड़ी होती है। 
वर्तमान समय में शायद भाजपा को शायद यह लग रहा हो कि जाति के सवाल को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इस पर गंभीर नहीं होने से वह चुनावी गणित में भी पिछड़ जायेगी। पर इन सबके बीच ही यह भी कि पार्टी की नई रणनीति हिंदू वोटों को धार्मिक आधार पर एकजुट करने की कोशिश को विफल कर सकती है। जाति के आधार पर वोटों का विभाजन हो सकता है। हालांकि, नई रणनीति भाजपा के उस लंबे प्रयास को कमजोर कर सकती है, जिसके जरिए वह धार्मिक एकता के नाम पर हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण कर रही थी। जातिगत जनगणना के बाद यदि वोटर फिर से स्थानीय उम्मीदवार की जाति को ध्यान में रखकर वोट डालते हैं, तो हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की पिच कमजोर हो सकती है। यह फैसला बीजेपी के शहरी और मध्यम वर्गीय वोटरों को भी निराश कर सकता है। इसे मंडल युग की राजनीति में वापसी के रूप में भी देखा जाने लगा है। समाज में जातिविहीन व्यवस्था की मांग जब जोर पकड़ रही है, तब जातिगत गणना का फैसला भाजपा के ही विकास और समरसता के एजेंडे से एक कदम पीछे हटने जैसा लगने लगा है। पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह के समय मंडल-कमंडल की राजनीति ने देश के सामाजिक ताने-बाने और विकास को बुरी तरह प्रभावित किया था। कहीं यह फैसला मंडल-कमंडल पार्ट-2 न साबित हो जाए। देश में 4,000 से अधिक जातियां हैं। असंख्य उपजातियां भी। ऐसे में उनका सटीक वर्गीकरण आसान नहीं है। गलत आंकडों के कारण नीतिगत त्रुटि और इससे सामाजिक असंतोष का खतरा भी पैदा होगा। कहा जाता है कि पूरी दुनिया में शायद ही कहीं ऐसा देश हो, जहां सरकारी नौकरियों, संसाधनों का निर्धारण जाति को आधार मानकर किया जाता हो। ऐसे में जातिगत जनगणना का फैसला और इस पर अमल करने की राह भाजपा के लिए बेहद कंटीली साबित होनी तय है। शायद आगे आने वाले समय में पार्टी के भविष्य की रूपरेखा भी इससे निर्धारित हो।