प्रयागराज: उत्तर प्रदेश: भारतीय जनमानस में देवी-देवताओं के सिद्धपीठ और सती से जुड़े शक्तिपीठ सदियों से न केवल आस्था के केंद्र रहे हैं, बल्कि श्रद्धालुओं के कष्ट निवारण और मनोकामना पूर्ति के लिए भी जाने जाते हैं। देश में स्थापित 51 शक्तिपीठों (कुछ विद्वानों के अनुसार 52) में शक्ति की देवी मां दुर्गा की उपासना होती है, जिनकी शारदीय नवरात्रि में पूजा विशेष फलदायी मानी जाती है। प्रयागराज, जिसे तीर्थों का राजा भी कहा जाता है, इस मामले में अद्वितीय है। यह देश का एकमात्र पावन स्थल है जहाँ तीन विख्यात शक्तिपीठ स्थापित हैं: अलोप शंकरी देवी, मां कल्याणी देवी, और माता ललिता देवी। (इससे पहले, माता शीतला देवी से जुड़ी कड़ाधाम पीठ भी प्रयागराज के अंतर्गत आती थी, जो अब कौशाम्बी में है।)
शक्तिपीठों की स्थापना की कहानी पौराणिक कथा से जुड़ी है। ब्रह्मा जी के पुत्र राजा दक्ष की पुत्री देवी सती ने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध भगवान शिव से विवाह किया था। राजा दक्ष, जो शिव को श्मशानवासी और अघोरी मानते थे, ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने जानबूझकर शिव और सती को आमंत्रित नहीं किया। बिना निमंत्रण के पिता के घर जाने पर, सती को न केवल अपमानित होना पड़ा, बल्कि राजा दक्ष ने सार्वजनिक रूप से उनके पति, भगवान शिव का भी अपमान किया। इस घोर अपमान से आहत और ग्लानि से भरकर देवी सती ने यज्ञ के लिए बने हवन कुंड में कूदकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली। पत्नी की मृत्यु का समाचार मिलते ही भगवान शिव अत्यंत क्रोधित हो गए, उन्होंने यज्ञ मंडप को तहस-नहस कराया और सती के शव को पीठ पर रखकर आकाश में तांडव शुरू कर दिया। सृष्टि को बचाने के लिए, भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शव के टुकड़े कर दिए। ये टुकड़े पृथ्वी पर जिन 51 स्थानों पर गिरे, वे शक्तिपीठ कहलाए, जहाँ देवी शक्ति के रूप में मां दुर्गा की पूजा होती है।
प्रयागराज में स्थित शक्तिपीठ अलोपशंकरी देवी को श्रद्धालु 'अलोपी देवी' और 'मनोकामना सिद्धि देवी' के नाम से जानते हैं। मान्यता है कि इसी स्थान पर देवी सती के दाहिने हाथ का पंजा गिरा था, लेकिन वह गिरने के बाद अदृश्य हो गया। 'अलोपी' का अर्थ भी 'अदृश्य' होता है, इसी आधार पर इस पावन स्थल का नामकरण हुआ। अंग के अदृश्य हो जाने के कारण, इस मंदिर में देवी सती की कोई मूर्ति या प्रतीक चिन्ह स्थापित नहीं है। मंदिर के गर्भगृह में लकड़ी का एक पालना रखा है, जिसे चांदी के पत्तर से सुरक्षित किया गया है। श्रद्धालु इसी पालने को देवी सती का स्वरूप मानकर पूजा-अर्चना करते हैं, उस पर फूल-माला चढ़ाते हैं और मनोकामना मांगते हैं।
इस अति प्राचीन मंदिर की स्थापना का वास्तविक समय ज्ञात नहीं है, हालांकि कुछ स्थानों पर 11वीं सदी का उल्लेख मिलता है। आधुनिक प्रमाण बताते हैं कि मराठा योद्धा श्रीनाथ महादजी शिदें ने 1771-1772 में और बाद में महारानी बैजाबाई ने 1800 के आस-पास इसका निर्माण और जीर्णोद्धार कराया। वर्तमान में, प्रदेश की भाजपा सरकार ने भी इस मंदिर का व्यापक सौन्दर्यीकरण कराया है। यह मंदिर प्रयागराज और आसपास के जिलों में मनोकामना पूर्ति के लिए विख्यात है। यहाँ आने वाले श्रद्धालु देवी के पालने को छूने या माथा टेकने का अवसर पाने की अभिलाषा रखते हैं। नवरात्रि में यहाँ सुबह से ही भक्तों की लंबी कतारें लग जाती हैं। इसके अतिरिक्त, सामान्य दिनों में, विशेषकर सोमवार को भी खासी भीड़ रहती है। संगम जाने वाले रास्ते पर स्थित होने के कारण, महाकुंभ (जैसे प्रयागराज महाकुंभ 2025) या सामान्य स्नान के लिए आने वाले करोड़ों श्रद्धालु इस प्राचीन धार्मिक मंदिर में दर्शन करने अवश्य आते हैं। तमाम परिवार जन्म से मरण तक के धार्मिक कार्यक्रम, जैसे मुंडन, अन्नप्राशन, और जनेऊ संस्कार, इस मंदिर प्रांगण में संपन्न कराते हैं।
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