Malegaon Blast : 29 सितंबर 2008 को मालेगांव शहर एक आम दिन की तरह ही जाग रहा था, जब अचानक हुए धमाकों ने सब कुछ बदल दिया। इस भयावह घटना में 6 लोगों की मौत हो गई और 93 घायल हुए, जिसने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। पिछले 17 सालों से, मालेगांव बम धमाका सिर्फ एक कानूनी लड़ाई नहीं, बल्कि हमारी जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली और भारतीय राजनीति पर कई गंभीर सवालों का प्रतीक बन गया है। मुंबई की विशेष एनआईए अदालत द्वारा सभी सात अभियुक्तों को बरी किए जाने के बाद, यह समझना और भी आवश्यक हो गया है कि आखिर इतने गंभीर आरोप क्यों साबित नहीं हो पाए।
विशेष अदालत के न्यायाधीश ए.के. लाहोटी ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि अभियोजन पक्ष ठोस सबूत पेश करने में पूरी तरह से विफल रहा। न्यायाधीश ने जोर दिया कि यह एक बेहद गंभीर मामला था, जिसमें कई बेगुनाह नागरिकों ने अपनी जान गंवाई, लेकिन आरोप सिद्ध करने के लिए पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत नहीं किए जा सके। उन्होंने कहा कि केवल शक के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
इस मामले की गंभीरता इसलिए भी बढ़ जाती है क्योंकि इसमें पहली बार हिंदुत्ववादी संगठनों से जुड़े लोग और एक सेवारत सैन्य अधिकारी, लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित, अभियुक्त बनाए गए थे। साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, कर्नल पुरोहित, रिटायर्ड मेजर रमेश उपाध्याय, अजय राहिरकर, सुधाकर चतुर्वेदी, समीर कुलकर्णी, और सुधाकर द्विवेदी—इन सभी को आरोपों से मुक्त कर दिया गया है।
2017 में इन अभियुक्तों से महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (मकोका) की धाराएं हटा ली गई थीं, लेकिन गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत मुकदमा चल रहा था। अब, यूएपीए के तहत भी सबूतों के अभाव में इन्हें बरी कर दिया गया है।
अभियोजन पक्ष पर साजिश रचने, विस्फोटक प्राप्त करने और कई लोगों की मौत के लिए जिम्मेदार ठहराने जैसे गंभीर आरोप लगाए गए थे। 2008 में महाराष्ट्र आतंकवाद निरोधक दस्ता (एटीएस) ने जब जांच शुरू की, तो 14 लोगों को गिरफ्तार किया गया था। एटीएस ने एनआईए को मामला सौंपने से पहले दो आरोपपत्र दाखिल किए, जिसके बाद एनआईए ने 2016 में एक पूरक आरोपपत्र दाखिल किया।
इस लंबी न्यायिक प्रक्रिया के दौरान, विशेष सरकारी वकील अविनाश रसाल ने जानकारी दी कि उन्होंने कुल 324 गवाहों से पूछताछ की थी, जिनमें से 34 अपने बयान से पलट गए। 31 जुलाई को अदालत ने फैसला सुनाते हुए कहा कि जो सबूत पेश किए गए थे, वे अभियुक्तों का दोष साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं थे।
एक महत्वपूर्ण सवाल यह रहा कि विस्फोट में इस्तेमाल हुए आरडीएक्स का स्रोत जांच एजेंसियां सिद्ध नहीं कर पाईं। अदालत ने टिप्पणी की कि यह आरोप लगाया गया था कि विस्फोटक पुरोहित ने कश्मीर से हासिल किया था, लेकिन इसका कोई सबूत नहीं दिया गया और यह भी प्रमाणित नहीं किया गया कि बम कहां तैयार किया गया था।
जिस मोटरसाइकिल पर विस्फोटक रखा गया था, उसका साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर से संबंध सिद्ध नहीं हो सका। जांच एजेंसियों का दावा था कि इस घटना से पहले इंदौर, उज्जैन, पुणे जैसी जगहों पर अभियुक्तों की बैठकें हुई थीं जहां साजिश रची गई थी, लेकिन न्यायाधीश लाहोटी ने कहा कि इन बैठकों के होने के कोई विश्वसनीय सबूत अदालत के सामने पेश नहीं किए गए।
अभियुक्तों पर अभिनव भारत नामक संगठन की स्थापना और उसके तहत साजिश रचने का भी आरोप था। अदालत ने स्वीकार किया कि कुछ आर्थिक लेन-देन के प्रमाण प्रस्तुत किए गए, लेकिन यह साबित नहीं हो सका कि उस पैसे का इस्तेमाल किसी हिंसक गतिविधि के लिए हुआ था।
न्यायाधीश लाहोटी ने अपने फैसले में महाराष्ट्र एटीएस की शुरुआती जांच की भी आलोचना की। अदालत ने कहा कि अभियुक्तों और उनसे संबंधित लोगों के कॉल रिकॉर्ड निकालते समय आवश्यक कानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया और इसके लिए जरूरी अनुमति भी नहीं ली गई थी। इसके अलावा, घटनास्थल पर पंचनामा भी सही तरीके से नहीं किया गया और सबूतों के साथ छेड़छाड़ की गई।
फैसले के बाद, सुधाकर द्विवेदी के वकील रणजीत सांगले ने बताया, 'जो फॉरेंसिक सबूत पेश किए गए वे गलत तरीके से इकट्ठे किए गए थे और घटनास्थल से जो सबूत जुटाए गए, वे बिगड़ चुके थे। इसलिए उन्हें बतौर सबूत नहीं माना जा सकता।' उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि सरकारी पक्ष विश्वसनीय सबूत पेश करने में नाकाम रहा। उनका तर्क था कि केवल संदेह के आधार पर कोई अंतिम निर्णय नहीं लिया जा सकता। भले ही यह एक गंभीर अपराध था, लेकिन सबूतों की कमी के कारण अभियुक्तों को संदेह का लाभ देना पड़ा।
इस फैसले के बाद, मालेगांव बम ब्लास्ट मामला एक बार फिर से सुर्खियों में आ गया है, और यह हमें सोचने पर मजबूर करता है कि आखिर न्याय की इतनी लंबी राह के बाद भी, पीड़ितों को पूर्ण न्याय क्यों नहीं मिल पाया? यह फैसला हमारी न्यायिक प्रक्रिया और जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली पर कई गहरे सवाल छोड़ जाता है। क्या हम भविष्य में ऐसे मामलों में बेहतर नतीजे की उम्मीद कर सकते हैं?
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