नई दिल्लीः लगातार बारिश और बाढ़ उत्तर भारत को तबाह कर रही है। दार्शनिक और लेखक आचार्य प्रशांत ने इस विनाश को प्रगति की हमारी गलत परिभाषा का प्रतिबिंब बताया है। दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में हार्पर कॉलिन्स द्वारा प्रकाशित अपनी आगामी पुस्तक 'ट्रस्ट विदाउट अपोलॉजी' के विमोचन से पहले, आचार्य प्रशांत ने चेतावनी दी कि बाढ़ और भूस्खलन को प्राकृतिक आपदा कहना खतरनाक है क्योंकि यह इन आपदाओं के मानव-निर्मित कारणों को नकारता है।
20 जून से अब तक हिमाचल प्रदेश में 340 से ज़्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। भूस्खलन और अचानक आई बाढ़ ने पूरे ज़िलों का संपर्क तोड़ दिया है और 1,300 से ज़्यादा सड़कें अभी भी अवरुद्ध हैं। जम्मू-कश्मीर में नदियाँ खतरे के निशान से ऊपर बह रही हैं, पंजाब के 1,400 गाँव प्रभावित हुए हैं और दिल्ली-एनसीआर जलभराव, ट्रेन रद्द होने और परिवहन बाधित होने से जूझ रहा है।
आचार्य प्रशांत ने कहा कि इन आपदाओं से हुए नुकसान के विशाल पैमाने के कारण हर राहत प्रयास छोटा लगता है। हिमाचल की पहाड़ियाँ इसलिए ढह रही हैं क्योंकि हमने निर्माण और प्रगति के नाम पर वर्षों तक उन्हें खोदा, विस्फोट किया और सीमेंट से ढक दिया। जब नदियों को जबरन कंक्रीट में और दलदली भूमि को अचल संपत्ति में बदल दिया जाता है, तो मानसून निश्चित रूप से इसका बदला लेगा।
ग्रामीण लाचारी और शहरी लापरवाही के बीच अंतर बताते हुए, उन्होंने कहा कि हिमालयी गाँव इसलिए ढह जाते हैं क्योंकि वे प्रतिरोध करने में असमर्थ होते हैं। लेकिन दिल्ली और गुड़गांव के पास क्या बहाना है? ये सबसे अमीर शहर हैं। ये गरीबी से नहीं, बल्कि लापरवाही से डूब रहे हैं। वर्षा जल निकासी के नाले जाम हैं, बाढ़ के मैदानों पर अतिक्रमण हो रहा है, और हमारी ज़िम्मेदारी घर की चारदीवारी तक ही सीमित है।
ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद के अनुसार, भारत में बाढ़ प्रभावित ज़िलों की औसत संख्या 1970-2004 के बीच प्रति वर्ष 19 से बढ़कर 2005-2019 के बीच प्रति वर्ष 55 हो गई। यह मौसम का प्रकोप नहीं, बल्कि भयावह रूप ले रहा जलवायु पतन है। फिर भी, भारत के चार में से तीन बाढ़-प्रवण ज़िलों में उचित पूर्व चेतावनी प्रणाली का अभाव है।
उन्होंने यह भी कहा कि यह संकट वैश्विक जलवायु प्रतिक्रिया चक्रों से अलग नहीं है: "पर्माफ्रॉस्ट से मीथेन निकल रही है, ग्लेशियर गायब हो रहे हैं, समुद्र में प्रवाल भित्तियाँ मर रही हैं। एक बार ये चक्र शुरू हो जाने पर, ये तेज़ हो जाते हैं। बाढ़ को मौसम का प्रकोप कहना यथार्थवाद नहीं है, बल्कि मूल समस्या को पूरी तरह से नकारना है। यह निराशावाद नहीं है, यह भौतिकी है, ये तथ्य हैं।"
जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ते अन्याय पर उन्होंने कहा कि दुनिया का 10 प्रतिशत सबसे अमीर वर्ग निजी जेट और विलासिता-केंद्रित जीवनशैली के ज़रिए लगातार कार्बन उत्सर्जन बढ़ा रहा है, जबकि इसी उत्सर्जन के कारण किसान और मज़दूर अपनी जान और फसल दोनों गँवा रहे हैं। जलवायु परिवर्तन सिर्फ़ एक पारिस्थितिक संकट नहीं है, बल्कि अमीरों द्वारा गरीबों का उत्पीड़न है।
उन्होंने तत्काल सुधार, आर्द्रभूमि और बाढ़ क्षेत्रों के पुनरुद्धार, कार्बन-प्रधान उपभोग पर कर और कंपनियों व मशहूर हस्तियों के कार्बन पदचिह्नों का सार्वजनिक प्रकटीकरण करने का आह्वान किया।
उन्होंने कहा कि हमें प्रगति की परिभाषा बदलनी होगी। 'अच्छे जीवन' की परिभाषा बड़ी कारों, बड़े घरों और ज़्यादा हवाई यात्राओं से नहीं हो सकती और यह परिभाषा उन्हीं लोगों ने थोपी है जो हमारी इच्छाओं से लाभ कमा रहे हैं। इसके साथ ही उन्होंने चेतावनी दी कि जब तक मानव उपभोग में बदलाव नहीं आएगा, कोई भी सुधार स्थायी नहीं होगा। अगर मानव मन नहीं बदला तो नीतियाँ विफल हो जाएँगी। जब तक त्योहार पटाखों और अंधाधुंध खरीदारी का पर्याय बने रहेंगे, जब तक खुशी का मतलब अत्यधिक यात्रा या सामाजिक दिखावे से जुड़ा रहेगा, तब तक जलवायु परिवर्तन को रोकने की दिशा में कोई आमूलचूल परिवर्तन संभव नहीं है।
उन्होंने कहा कि आज मानव समाज के लिए यह समझना बेहद ज़रूरी है कि बाहरी जलवायु, आंतरिक जलवायु का ही प्रतिबिम्ब है। जब भीतर अराजकता और अशांति होगी, तो बाहरी प्रकृति भी विनाश की ओर अग्रसर होगी।
आचार्य प्रशांत ने प्रशांत अद्वैत फाउंडेशन के अभियान 'ऑपरेशन 2030' का भी ज़िक्र किया, जिसका उद्देश्य नागरिकों को संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित समय-सीमा के प्रति जागरूक करना है। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि अगर 2030 तक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित नहीं रखा गया, तो पिघलते ग्लेशियर, बढ़ते समुद्र और ढहते पारिस्थितिकी तंत्र हमें ऐसी विकट स्थिति में धकेल देंगे जहाँ से सामान्य जलवायु की ओर वापसी संभव नहीं होगी। 'ऑपरेशन 2030' का आधार भी यही अंतर्दृष्टि है। केवल आंतरिक स्पष्टता ही किसी भी बाहरी परिवर्तन को स्थायी बना सकती है।
उन्होंने भगवद्गीता का हवाला देते हुए कहा कि आंतरिक स्पष्टता से उत्पन्न कर्म मुक्ति प्रदान करता है, जबकि आसक्ति से उत्पन्न कर्म विनाश की ओर ले जाता है। अविवेकपूर्ण विकास अगली त्रासदी की तैयारी है। मानसून ने अपनी तेज़ और स्पष्ट आवाज़ में हमें एक संदेश दिया है। सवाल यह है कि क्या हम सुनेंगे?
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