ओबरा के चौराहे पर सवालों के घेरे में बचपन, मंदिर के साए में पलती मजबूरी

खबर सार :-
ओबरा के मुख्य चौराहे पर हनुमान मंदिर के बाहर भीख मांगते मासूम बच्चों की स्थिति ने प्रशासन और समाज की चुप्पी पर सवाल खड़े कर दिए हैं। आवश्यकता है कि शासन, प्रशासन और समाज, तीनों मिलकर इस मौन को तोड़ें ।

ओबरा के चौराहे पर सवालों के घेरे में बचपन, मंदिर के साए में पलती मजबूरी
खबर विस्तार : -

ओबरा/सोनभद्र: औद्योगिक पहचान रखने वाला ओबरा नगर इन दिनों एक ऐसे दृश्य का गवाह बन रहा है, जो समाज और व्यवस्था, दोनों को कटघरे में खड़ा करता है। नगर के सबसे व्यस्त और प्रमुख चौराहे पर स्थित हनुमान मंदिर के बाहर रोज़ाना मासूम बच्चों का भीख मांगना अब सामान्य दृश्य बन चुका है। आस्था और श्रद्धा के इस केंद्र के बाहर 3 से 13 वर्ष की उम्र के लगभग दो दर्जन बच्चे अपने बचपन की कीमत चंद सिक्कों में तलाशते नज़र आते हैं।

स्थानीय स्तर पर की गई पड़ताल में पता चला है कि ये बच्चे नगर के भलुआ टोला क्षेत्र से आते हैं, जहाँ गरीबी, अशिक्षा और बेरोज़गारी पीढ़ी दर पीढ़ी चलती आ रही है। कई बच्चों के सिर से माता-पिता का साया उठ चुका है, जबकि कुछ के अभिभावक कबाड़ बीनने या दिहाड़ी मजदूरी पर निर्भर हैं। दो वक्त की रोटी जुटाना जब चुनौती बन जाए, तो किताब और स्कूल बच्चों के जीवन से स्वतः ही दूर हो जाते हैं। मंगलवार और शनिवार को, जब मंदिर में श्रद्धालुओं की संख्या अधिक होती है, तब ये बच्चे प्रसाद और दान की आस में मंदिर के आसपास कतारबद्ध दिखाई देते हैं। अन्य दिनों में यही नन्हे हाथ पूरे नगर में फैल जाते हैं, कभी चौराहों पर, कभी बाज़ारों में, भीख मांगते हुए। यह स्थिति न केवल बाल श्रम और बाल अधिकार कानूनों की अनदेखी है, बल्कि सामाजिक संवेदनहीनता का भी परिचायक है।

सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि यह सब कुछ नगर के उसी मुख्य मार्ग पर हो रहा है, जहाँ से रोज़ाना प्रशासनिक अधिकारी, जनप्रतिनिधि और प्रभावशाली लोग गुजरते हैं। इसके बावजूद न तो किसी विभाग की सक्रियता दिखती है और न ही किसी ठोस पुनर्वास योजना का संकेत मिलता है। सोनभद्र जैसे अति पिछड़े और आदिवासी बहुल जिले में, जहाँ सरकारी योजनाओं में बाल कल्याण और शिक्षा को प्राथमिकता देने के दावे किए जाते हैं, वहाँ यह दृश्य उन दावों की सच्चाई उजागर करता है।

नगर के जागरूक नागरिकों और सामाजिक लोगों के बीच अब यह प्रश्न गूंजने लगा है कि आखिर इन बच्चों का भविष्य किसके भरोसे है? क्या प्रशासन की जिम्मेदारी केवल कागज़ी योजनाओं तक सीमित है, या फिर ज़मीन पर भी उसका कोई दायित्व बनता है? सड़क पर पलता बचपन न केवल व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न है, बल्कि आने वाले समय के लिए एक गंभीर चेतावनी भी है। यदि समय रहते इन बच्चों को शिक्षा, संरक्षण और पुनर्वास से नहीं जोड़ा गया, तो यह सामाजिक विफलता आने वाली पीढ़ियों पर भारी पड़ सकती है। अब आवश्यकता है कि शासन, प्रशासन और समाज, तीनों मिलकर इस मौन को तोड़ें और बचपन को उसका अधिकार लौटाएं।

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