Sarzameen Movie Review:  देश से बढ़कर बेटा भी नहीं....झकझोर कर रख देगी बाप-बेटे की इमोशनल कहानी

खबर सार :-
Sarzameen Movie Review: यह फिल्म भारत और पाकिस्तान के बीच तनावपूर्ण सीमा पर आधारित है, लेकिन इसका असली केंद्र एक सैनिक और उसके परिवार के रिश्ते पर है। यह एक भावनात्मक केंद्र है जिसमें बहुत संभावनाएं थीं, लेकिन कहानी का क्रियान्वयन इसका पूरा फायदा नहीं उठा पाया।

Sarzameen Movie Review:  देश से बढ़कर बेटा भी नहीं....झकझोर कर रख देगी बाप-बेटे की इमोशनल कहानी
खबर विस्तार : -

Sarzameen Movie Review: मशहूर निर्माता करण जौहर एक बार फिर देशभक्ति से प्रेरित फ़िल्म लेकर आए हैं। फ़िल्म का नाम है - सरज़मीन जो 25 जुलाई को जियो हॉटस्टार पर रिलीज़ हुई। बोमन ईरानी के बेटे कायोज़ ईरानी द्वारा निर्देशित सरज़मीन में सैफ अली खान के बेटे इब्राहिम अली खान ( ibrahim ali khan), काजोल (kajol) और पृथ्वीराज सुकुमारन मुख्य भूमिका में है। यह फ़िल्म एक देशभक्ति थ्रिलर है जो बड़े ट्विस्ट और एक भावनात्मक ड्रामा का वादा करती है।

Sarzameen Movie Review: फिल्म की कहानी

कश्मीर की खूबसूरत घाटियों में स्थापित, यह कर्नल विजय मेनन (पृथ्वीराज सुकुमारन) की कहानी है, जो एक बहादुर सेना अधिकारी है जो देश को सबसे पहले रखता है और एक मुठभेड़ में दो आतंकवादियों अबील और काबिल को गिरफ्तार करता है। इन दोनों को रिहा करवाने के लिए आतंकवादी विजय के बेटे हरमन (इब्राहिम अली खान) का अपहरण कर लेते हैं। अब विजय को अपने देश और बेटे में से किसी एक को चुनना होता है। अपनी पत्नी मेहरुन्निसा (काजोल) के दबाव में, वह अपने पिता के हृदय के आगे झुककर अपने बेटे के बदले इन आतंकवादियों को रिहा करने को तैयार हो जाता है, लेकिन ऐन मौके पर देश के प्रति उसका कर्तव्य जाग उठता है।

नतीजा यह होता है कि आतंकवादी हरमन को अपने साथ ले जाते हैं, जो आठ साल बाद कर्नल विजय की ज़िंदगी में लौटता है। लेकिन अब वह पहले जैसा कमज़ोर और हकलाता बच्चा नहीं रहा। वह एक प्रशिक्षित आतंकवादी बन चुका है। ऐसे में एक-दूसरे के ख़िलाफ़ खड़े इस पिता-पुत्र का रिश्ता क्या मोड़ लेता है? इस बार विजय किसे चुनेगा - बेटा या देश? यह सब फ़िल्म देखने के बाद पता चलेगा।

Sarzameen Movie Review: मूवी रिव्यू

कागज़ पर फ़िल्म की कहानी ज़रूर आकर्षक रही होगी, जिसमें एक सैनिक के कर्तव्य और एक पिता के दिल के बीच की जंग का ज़बरदस्त ड्रामा है, देशभक्ति का जज्बा है और अंत में एक हैरान कर देने वाला मोड़। लेकिन पटकथा बिना किसी रिसर्च के इतने हल्के अंदाज़ में लिखी गई है कि न तो कहानी का सिर और न ही उसके पैरों तले ज़मीन बची है। ऊपर से, सेना के प्रोटोकॉल का भी उल्लंघन किया गया है। मिसाल के तौर पर, कर्नल विजय दो वांटेड आतंकवादियों को रिहा करने का फ़ैसला ख़ुद ही ले लेता है। उसे न तो किसी से पूछने की ज़रूरत है और न ही किसी से सलाह लेने की।

एक आर्मी अफ़सर की पत्नी के रूप में काजोल की हरकतें भी समझ से परे लगती हैं। ऐसे अफ़सरों की पत्नियाँ बड़े से बड़े दुख को भी गरिमा के साथ झेल लेती हैं। अंत में आने वाला ट्विस्ट थोड़ा चौंकाने वाला है, लेकिन कुल मिलाकर अपनी पहली फ़िल्म का निर्देशन कर रहे कायोज़ ईरानी प्रभावित नहीं कर पाए हैं।

फ़िल्म की गति भी बहुत धीमी है। इसमें गानों की भरमार है, जो खूबसूरत बोल होने के बावजूद कानों को चुभते हैं। बैकग्राउंड स्कोर भी लाजवाब है। फ़िल्म की बची-खुची इज़्ज़त काजोल और पृथ्वीराज सुकुमारन जैसे अनुभवी कलाकारों ने बचा ली है। उन्होंने अपनी तरफ़ से ईमानदार अभिनय किया है, लेकिन लेखन की खामियाँ उनकी मेहनत पर पानी फेर देती हैं।

काजोल ने फिल्म में फूंकी जान 

हमेशा की तरह, काजोल ने इस किरदार में भी जान फूंक दी है। काजोल की एक्टिंग साफ़ दिखाती है कि कैसे एक मां अपने बेटे के विश्वासघात के बाद टूट जाती है। मां का दर्द दर्शकों को झकझोर देगा। वहीं इब्राहिम अली खान खलनायक के रूप में बेहतरीन काम किया है, जो तारीफ के लायक है। इब्राहिम को देखकर आपको सैफ अली खान के बेहतरीन किरदारों की याद आ जाएगी। जबकि पृथ्वीराज ने शानदार काम किया है।

फिल्म क्यों देखें?

सरज़मीन एक बार देखने लायक है। इसे देखकर आपको ऋतिक रोशन की फिल्म 'फ़िज़ा' की भी याद आ सकती है। अगर आपको देश से प्यार है और गद्दारों से नफ़रत है, तो आपको यह फिल्म ज़रूर देखनी चाहिए। यदि आपको गहरी छाप छोड़ने वाली फ़िल्में पसंद हैं, तो फिल्म आपको पसंद आ सकती है। हालांकि फिल्म में भावनात्मक गहराई का अभाव और सस्पेंस का अधूरा इस्तेमाल औसत बना देता है।  
 

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