Satyapal Malik का निधन: राजनेता से बढ़कर एक पारिवारिक व्यक्ति की कहानी

खबर सार :-
पूर्व राज्यपाल Satyapal Malik का 79 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उनका जीवन राजनीतिक उतार-चढ़ावों और पारिवारिक सादगी का संगम था। उनके बेटे देव कबीर मलिक एक ग्राफिक डिजाइनर हैं, जबकि बहू आईआईटी से ग्रेजुएट हैं। मलिक का निधन एक राजनेता के साथ-साथ एक मजबूत पारिवारिक व्यक्ति के रूप में भी एक खालीपन छोड़ गया है।

Satyapal Malik का निधन: राजनेता से बढ़कर एक पारिवारिक व्यक्ति की कहानी
खबर विस्तार : -

 Satyapal Malik : जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक के निधन की खबर सामने आई तो सियासी गलियारों में हलचल मचना ही था। 79 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कहने वाले मलिक का जीवन एक खुली किताब थी। यह किताब राजनीति, संघर्ष और परिवार के मजबूत रिश्ते की कहानियाें से भरी हुई थी।  
आज, मंगलवार को लंबी बीमारी के बाद दिल्ली के आरएमएल अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली। उनके निधन की पुष्टि उनके एक्स अकाउंट पर एक पोस्ट के जरिए हुई। उनका पार्थिव शरीर आर.के. पुरम स्थित उनके आवास पर लाया गया और फिर लोधी श्मशान घाट पर उनका अंतिम संस्कार किया गया।

Satyapal Malik : मलिक का परिवारः सादगी और शिक्षा का संगम

सत्यपाल मलिक का परिवार उनकी राजनीतिक पहचान से परे एक अलग ही तस्वीर पेश करता है। उनके पिता का नाम बुध सिंह और माता का नाम जगनी देवी था। उनकी जीवन संगिनी, इकबाल मलिक, एक शिक्षिका हैं। उनकी शादी 14 दिसंबर 1970 को हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार हुई थी, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि उनकी पत्नी इस्लाम धर्म से हैं। यह उनके रिश्ते की मजबूती और आपसी सम्मान को दर्शाता है।
इस दंपति का एक बेटा है, जिसका नाम देव कबीर मलिक है। देव ने पिता के राजनीतिक रास्ते पर न चलते हुए अपनी खुद की पहचान बनाई है। वह देश के जाने-माने ग्राफिक डिजाइनर हैं। उन्होंने नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजाइन से डिप्लोमा किया है और कई बड़ी कंपनियों के लिए काम कर चुके हैं। उनकी पत्नी यानी सत्यपाल मलिक की बहू भी काफी पढ़ी-लिखी हैं। खुद सत्यपाल मलिक ने एक बार बताया था कि उनकी बहू आईआईटी से ग्रेजुएट हैं।

 Satyapal Malik : एक राजनेता से बढ़कर

24 जुलाई 1946 को उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के हिसावदा गांव में जन्मे मलिक एक किसान परिवार से थे। उनकी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत मेरठ यूनिवर्सिटी में छात्र जीवन से ही हो गई थी, जहां वे छात्र संघों के अध्यक्ष बने।
उन्होंने 1974 में राजनीति में कदम रखा, जब वे चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में भारतीय क्रांति दल के टिकट पर बागपत से विधायक बने। आपातकाल के दौरान वे लोकदल के महासचिव रहे। 1980 में वे राज्यसभा के सदस्य बने। बाद में 1984 में उन्होंने कुछ समय के लिए कांग्रेस का दामन थामा, लेकिन बोफोर्स घोटाले के कारण 1987 में इस्तीफा देकर वी.पी. सिंह के साथ मिलकर जन मोर्चा का गठन किया।
1989 में वे जनता दल के उम्मीदवार के रूप में अलीगढ़ से लोकसभा पहुंचे और वीपी सिंह की सरकार में संसदीय कार्य और पर्यटन राज्य मंत्री भी रहे। उनका राजनीतिक जीवन कई उतार-चढ़ाव से भरा रहा, लेकिन हर मौके पर उन्होंने अपनी एक अलग पहचान बनाई। 

उनके निधन से भारतीय राजनीति में एक सितारा डूब गया जो ऐसा शून्य पैदा कर गया है, जिसे भरना मुश्किल है। उनका जीवन एक प्रेरणा है कि कैसे एक साधारण पृष्ठभूमि से आया व्यक्ति मेहनत और लगन से ऊंचाइयों को छू सकता है।

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