लखनऊ, एक जून को हम विश्व दुग्ध दिवस मना रहे हैं। दूध आज जन-जन की जरूरत बन चुका है। केवल यूपी में लाखों लोग दुग्ध व्यवसाय से जुड़े हुए हैं। दुनियाभर में दूध की डिमांड है और हर जगह यह रोजगार का माध्यम भी बना हुआ है। यह ऐसा कारोबार है, जिसकी पहुंच शहरों से गांवों तक है। लखनऊ, कानपुर, बरेली, बनारस और गाजियाबाद, बड़ी आबादी वाले जिलों में भी दुग्ध व्यवसाय से जुड़कर लोग अच्छी कमाई कर रहे हैं। जिलों के मध्य की आबादी छोड़कर बाह्य भौगोलिक क्षेत्र में पशुओं के पालने से लेकर दूध की सप्लाई तक के कार्य में युवाओं की भागीदारी बढ़ रही है।
हमें इस बारे में भलीभांति जानकारी है कि पोषण का लोकप्रिय स्रोत दूध भी है। गाय और भैंस को लगभग 9000-7000 ईसा पूर्व नवपाषाण युग में पालने की कोशिशें हुई थीं। मगर, विडम्बना यह है कि आज लोग बड़ी चालाकी से दूध निकालने के बाद पशु को खदेड़ देते हैं। यही सड़कों पर पशुओं के झुंड के रूप में दिख जाते हैं, लेकिन पालने वाले भी कम नहीं हैं। आध्यात्मिक और तार्किक दोनों कारणों से दूध का महत्व बढ़ा है। हिंदुस्तान में तो गाय का दूध धार्मिक उत्सवों और पूजा आदि के दौरान भी उपयोग में आता है। यहां दुग्धाभिषेक की परंपरा भी है। दुनिया में जहां भी हिंदू है, उनके लिए गाय का दूध पवित्र माना जाता है। हालांकि, आज भी दूध की जितनी पूजा की जाती है, उतना ही उसका उपहास भी किया जाता है। इसके बाद भी गांव तक दूध का आयात हो रहा है।
यह एक बड़ा कारोबार का स्थान ले चुका है। शहरों में गाय और भैंस के लिए उनकी जरूरत की वस्तुएं बनती हैं तो गांवों में भी कुछ ऐसा ही है। ग्रामीण लोग चारा की आपूर्ति के लिए खेतों पर निर्भर हैं तो दाना के लिए शहरों में भी प्रयास किए जाते रहे हैं। 1800 के दशक में दुग्ध व्यवसाय को बड़ा रूप देने के लिए दूधियों के स्वास्थ्य की चिंता की गई। ऐसे प्रयास हर साल बढ़े हैं। विश्व दुग्ध दिवस 2001 में संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन का प्रयास है। अन्य देशों ने भी इसे डेयरी किसानों, उपभोक्ताओं और रोजमर्रा की जिंदगी चलाने के लिए बराबर सम्मान दिया है। यह महज पौष्टिक भोजन ही नहीं, आर्थिक विकास और टिकाऊ कृषि के द्वार खोलता है। एफएओ के अनुसार, वैश्विक दूध उत्पादन 2024 में लगभग 979 मिलियन टन था।
राष्ट्रीय डेयरी विकास कार्यक्रम इसके बुनियादी ढांचे को मजबूत बनाता है। राष्ट्रीय गोकुल मिशन और पशुपालन अवसंरचना विकास निधि ऐसे माध्यम हैं, जो दुग्ध उत्पादकों को ज्यादा लाभ देने के लिए सरल हैं। लखनऊ के कान्हा गौशाला में इन दिनों डेढ़ हजार के करीब गौवंशीय हैं। शहर का यह अकेला गौशाला नहीं है, कई और गौशालाओं में पशुओं की संख्या काफी है। सरकार की ओर से भी पशुपालकों को तमाम तरह की मदद दी जा रही है। पशुओं के टीकाकरण से लेकर चारा प्रबंधन तक मदद की जा रही है।
दूध से बने उत्पादों के बाजार यहां तलाशने भी नहीं पड़ते हैं। गौशालाओं के गोबर से भी अब कई वस्तुएं बन रही हैं। कंडों और उपलों से ईंधन तैयार किया जा रहा है। सीएनजी तैयार करने के लिए बड़े पैमाने पर गोबर आसानी से खपने लगा है। अगरबत्ती और पेंट बनाने के लिए कंपनियां तैयार हो रही हैं। ऐसे कार्य में महिलाएं भी मदद कर रही हैं। उनकी आर्थिक परेशानी दूर करने में भी दुग्ध व्यवसाय काफी कारगर साबित हो रहा है। वक्त के साथ हमें भी बदलने की जरूरत है। हमें पहले की तरह ही दुग्ध व्यवसाय को प्रोत्साहित करते रहने की जरूरत है।
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