National Doctors Day : भारत के डॉक्टरों ने विदेशों में झंडे गाड़ दिए हैं। यह बात अब कोई कहावत नहीं, बल्कि हकीकत में दिखाई देती है। अमेरिका, ब्रिटेन, मिडिल ईस्ट, हर कोने में भारतीय डॉक्टरों की मौजूदगी देखने को मिल जाती है। OECD की रिपोर्ट हो या वर्ल्ड हेल्थ डेटा, भारत से पढ़े हुए हजारों डॉक्टर अब दूसरे देशों के लोगों की सेहत सुधार रहे हैं। लेकिन यह तस्वीर जितनी सुंदर बाहर दिखती है, देश के अंदर उतनी ही बदरंग हो चुकी है। दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में भी आज की तारीख में किसी बड़े अस्पताल में एक बेड मिलना भी किसी बड़ी लड़ाई को जीतने जैसा है।
OECD (आर्थिक सहयोग और विकास संगठन), जो मुख्य रूप से विकसित देशों का एक समूह है, 75,000 प्रशिक्षित भारतीय डॉक्टरों की विशेषज्ञता पर काफी निर्भर करता है। इनमें से एक बड़ा हिस्सा, लगभग दो-तिहाई भारतीय डॉक्टर, संयुक्त राज्य अमेरिका में अपनी सेवाएँ दे रहे हैं, जबकि तकरीबन 19,000 डॉक्टर यूनाइटेड किंगडम में स्थायी रूप से बस गए हैं। जबकि यह संख्या भारत की कुल डॉक्टर संख्या का केवल 7 फीसदी है, यह एक ऐसे देश के लिए महत्वपूर्ण आंकड़ा है जो चिकित्सा पेशेवरों की कमी का सामना कर रहा है, जिसमें लगभग हर 811 रोगियों के लिए एक डॉक्टर है। इसके विपरीत, भारत के समान जनसंख्या होने के बावजूद, केवल लगभग 8,000 चीनी डॉक्टर विदेश में काम कर रहे हैं। दिलचस्प बात यह है कि रोमानिया, जिसकी आबादी केवल 20 मिलियन है, उसके 22,000 डॉक्टर विदेश चले गए हैं।
हर साल 1 जुलाई को भारत में डॉक्टर्स डे मनाया जाता है। यह दिन भारत के महान चिकित्सक, शिक्षाविद डॉ. बिधान चंद्र रॉय को याद करते हुए मनाते हैं। 1 जुलाई को डॉ रॉय का जन्म और पुण्यतिथि, दोनों है। उनका जन्म 1 जुलाई 1882 को हुआ था और संयोग से, 1 जुलाई 1962 को उनका निधन हुआ। स्वास्थ्य के क्षेत्र में उनके असाधारण योगदान और उनके सामाजिक कार्यों को सम्मान देने के लिए यह दिन चुना गया। डॉ. रॉय न केवल एक प्रसिद्ध चिकित्सक थे, बल्कि उन्होंने पश्चिम बंगाल के दूसरे मुख्यमंत्री के रूप में भी कार्य किया।
आप सोचिए, जब करोड़ों की मशीनों वाले फाइव स्टार अस्पतालों में भी बेडों की वेटिंग हो, तो आम जनता का क्या हाल होगा? अपोलो, फोर्टिस, गंगाराम और मैक्स जैसे संस्थानों में भी सिंगल रूम या ICU बेड के लिए मरीजों की लाइन लगती है। कई बार तो डॉक्टरों को खुद भी ऑपरेशन थिएटर के स्लॉट बांटने में मशक्कत करनी पड़ती है। इतना ही नहीं कई बार देखा गया है कि ऑपरेशन के बाद गंभीर से गंभीर मरीज को स्ट्रेचर पर ही रखा जाता है और ये कोई अफवाह नहीं, एक सच्चाई है, जिसे कई मरीजों ने भुगता है। डॉक्टरों की बातों से लगता है कि बीमारी से ज्यादा इंतज़ार मरीज को थका देता है।
एक तरफ देश के डॉक्टर विदेशों में मिशन पर जाते हैं, तो दूसरी ओर यहीं उनके पास एक दिन में 100 से ज्यादा मरीज देखने की मजबूरी होती है। बातों-बातों में एक वरिष्ठ सर्जन ने कहा कि भाई साहब, अब तो हालत ये है कि ऑपरेशन के लिए भी नंबर लगाना पड़ता है। जो डॉक्टर एक दिन में दो-दो सर्जरी करके वापस अपने क्लिनिक पहुंच जाता है, वही शाम को ऑनलाइन विदेशी मरीज से भी कंसल्टेशन करता है। अब इसमें गलती किसकी मानी जाए, डॉक्टर की, सिस्टम की या सरकार की? सही कहें तो ये सब एक चक्रव्यूह है, जहां डॉक्टर खुद भी फंसा है।
सरकार मेडिकल सीटें बढ़ा रही है, कॉलेज खोल रही है, लेकिन क्या वो डॉक्टर देश में टिक रहे हैं? हालात ऐसे हैं कि MBBS खत्म करते ही टैलेंटेड छात्र विदेश की ओर रुख कर लेते हैं। अब भला कोई क्यों न जाए, जब वहां पैसे भी ज्यादा, इज्जत भी ज्यादा और सुविधा भी बेहतर हो। हालांकि कुछ युवा डॉक्टर अब अपने देश में रुकने का फैसला कर रहे हैं, मगर ये संख्या अभी ऊंट के मुंह में जीरा जैसी ही है। कहावत है कि खेत सींचो, लेकिन पानी पड़ोसी के कुएं में चला जाए, भारत की चिकित्सा शिक्षा का यही हाल है।
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