नई दिल्ली : आंखों से बहते आंसू अक्सर बता देते हैं कि गायक ने अपनी संगीत से सामने वाले के दिल में घर बना लिया। गाने वाले तो बहुत हैं, लेकिन ऐसा कौन होगा जो मोहब्बत के दर्द को अपनी गायकी से इतनी गहराई से समझा सके। हम बात कर रहे हैं मल्लिका-ए-गजल के नाम से मशहूर बेगम अख्तर की, जिनकी गजलें और गीत करोड़ों दिलों में जिंदा हैं। बेगम अख्तर 30 अक्टूबर 1974 को इस दुनिया से चली गई थीं। लोग उन्हें मल्लिका-ए-गजल कहते हैं, लेकिन सच तो यह है कि उन्होंने वह दर्द खुद जिया और समझा जो जीवन ने उन्हें दिया। इसीलिए जब वे स्टेज पर ‘ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’ गाती थीं, तो दर्शकों की आंखों से आंसू बहने लगते थे।
सब कहते, “वाह, गजल की मल्लिका, क्या खूब गाया। वह गजल की दुनिया में एक ऐसा नाम थीं, जिसकी आवाज सुनकर दिल की गहराइयों से आंसू बह निकलते हैं। 7 अक्टूबर 1914 को फैजाबाद में जन्मीं अख्तरी बाई फैजाबादी, जिन्हें बाद में बेगम अख्तर के नाम से जाना गया, उनकी गजलों में आज भी संगीत प्रेमी खो जाते हैं। उनकी उस आइकॉनिक गजल ‘ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’ की याद हमें सोचने पर मजबूर कर देती है कि क्या मोहब्बत का ये दर्द कभी कम होता है।
बेगम अख्तर के बारे में उर्दू के अजीम शायर कैफी आजमी ने कहा था, 'गजल के दो मायने होते हैं-पहला गजल और दूसरा बेगम अख्तर। बेगम अख्तर की आवाज मखमली और जादुई थी। उनका पूरा जीवन दुखों में बीता। उनके दुख इतने गहरे थे कि वही उनकी आवाज का हिस्सा बन गए। उनकी एक शिष्या बताती हैं कि जब भी उनका जिक्र आता है, तो हमें लखनऊ से फैजाबाद की ओर जाना पड़ता है। बेगम अख्तर ने कम उम्र में ही संगीत सीखने की रुचि दिखाई।
मात्र 14 साल की उम्र में वे एक गायिका के रूप में उभरीं। फिल्म ‘जलसा घर’ में उन्होंने गाने गाए। साल 1945 में उन्होंने बैरिस्टर इश्तियाक अहमद अब्बासी से निकाह किया। मां के देहांत ने उन्हें गहरा धक्का दिया। लंबे समय तक वे गायकी से दूर रहीं, लेकिन पति के कहने पर जब दोबारा गाना शुरू किया तो फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
बेगम अख्तर की एक बड़ी खासियत थी शायरी का बेहतरीन चयन। वे जो भी गाती थीं, उसे बड़ी एहतियात से चुनती थीं। सिर्फ वही शायरी कंपोज करतीं और गातीं जो उनके भीतर तक उतर जाती थी, ताकि शायर के दिल की बात सुनने वालों के दिल तक पहुंच सके। फिल्म स्टार नाना पाटेकर ने एक बार उनके बारे में कहा कि एक कॉन्सर्ट में जब बेगम गा रही थीं और गाना खत्म हुआ तो दर्शक दीर्घा में सन्नाटा छा गया। कोई ताली नहीं बजी। हमेशा जोरदार तालियां बजती थीं। जब किसी ने पूछा तो बेगम ने मुस्कुराते हुए कहा, 'इसी सन्नाटे के लिए हम जीते हैं। सामने वाला भूल गया कि उसे ताली भी बजानी है।
'ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया' के पीछे की कहानी भी थोड़ी फिल्मी है। कहा जाता है कि करीब 75 साल पहले, जब बेगम अख्तर मुंबई से लखनऊ लौट रही थीं, तो रेलवे स्टेशन पर एक शायर उनसे मिले। शायर ने अपनी शायरी को आवाज देने की गुजारिश की। उन्होंने एक कागज का टुकड़ा बेगम को थमा दिया। बेगम ने उसे लिया और पर्स में रख लिया। भोपाल रेलवे स्टेशन के पास चलती ट्रेन में उस गजल का ख्याल आया। बेगम ने हारमोनियम पर सुर बैठाना शुरू कर दिया।
शायरी की आखिरी पंक्ति में शायर का तखल्लुस था, 'जब हुआ जिक्र जमाने में मोहब्बत का 'शकील' मुझ को अपने दिल-ए-नाकाम पे रोना आया।' वो शायर थे शकील बदायुनी। दुनिया से अलविदा कहने से पहले यही गजल बेगम अख्तर का आखिरी पैगाम बन गई। बड़े-बड़े इतिहासकार उन्हें याद कर बताते हैं कि वह आज के दौर के गजल गायकों की तुलना में बिल्कुल विपरीत थीं। शायद उन्होंने जो गाया, वह कुदरत ही उनसे चाहता था।
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