Chhath Puja 2025: कार्तिक मास की चतुर्थी तिथि नहाय खाय से लेकर सप्तमी तिथि उगते सूर्य को अर्घ्य देने तक छठ पर्व मनाया जाता है। इस दौरान भगवान भास्कर और छठी मैया की पूजा अर्चना की जाती है। छठ पूजा खास तौर पर संतान की कामना और लंबी उम्र के लिए की जाती है। छठी मैया सूर्यदेव की बहन हैं और इस पर्व पर इन दोनों की ही पूजा अर्चना की जाती है। चार दिन तक चलने वाले इस पर्व में सात्विक भोजन किया जाता है। पहले दिन खरना, दूसरे दिन खरना, तीसरे दिन सूर्य संध्या अर्घ्य और चौथे दिन उगले सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है।
इस महापर्व छठ को मनाए जाने के पीछे की कई कहानियां क्या है और इसके महत्व क्या है इसकी शुरूआत कैसे हुई इन सभी विशयों के बारें में आज हम आपको बताएंगे। छठ पर्व की शुरुआत को लेकर कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं, जिनमें सबसे प्रमुख मान्यता यह है कि इसकी शुरुआत महाभारत काल में द्रौपदी ने की थी, जब पांडव अपना राजपाट हार गए थे। एक अन्य मान्यता के अनुसार, यह पर्व महाभारत काल में सूर्यपुत्र कर्ण द्वारा शुरू किया गया था, जो घंटों तक नदी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे। रामायण काल से जुड़ी कथा के अनुसार, माता सीता ने भी वनवास के दौरान पहली बार छठ पूजा की थी।
अब सबसे पहले एक एक कर के आपको ये कथाएं मैं बताती हूं। सबसे पहली कथा जो है वो है पुराणों के मुताबिक, राजा प्रियंवद को कोई संतान नहीं थी। महर्षि कश्यप ने पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ कराई और यज्ञ आहुति के लिए बनाई खीर प्रियंवद की पत्नी मालिनी को दी। बाद में मालिनी को पुत्र हुआ, लेकिन वह मृत पैदा हुआ। प्रियंवद बहुत दुखी हो गए। वह पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में अपना प्राण त्यागने की कोशिश की। उसी वक्त भगवान ब्रह्मा की मानस पुत्री प्रकट हुईं। राजा ने पूछा कि आप कौन हैं। उन्होंने कहा सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी हूं। राजन तुम मेरी पूजा करो और इसके लिए दूसरों को भी प्रेरित करो तो तुम्हें इस दुख से मुक्ति मिल जाएगी।
इसके बाद राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। तभी से षष्ठी यानी छठी मैया की पूजा होती चली आ रही है। दूसरी कथा जो है वो मान्यताओं के अनुसार, छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। सबसे पहले महादानी सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्य देव की पूजा शुरू की थी। कर्ण बिहार के अंग प्रदेश जिसका वर्तमान में नाम भागलपुर है वहां के राजा थे और सूर्य और कुंती के पुत्र थे। सूर्यदेव से ही कर्ण को दिव्य कवच और कुंडल प्राप्त हुए थे, जो हर समय कर्ण की रक्षा करते थे। कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे और वह प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बने और आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही परंपरा प्रचलित है। छठ पर्व के बारे में एक अन्य कथा ये भी है की, महाभारत काल में द्रौपदी परिवार की सुख-शांति और रक्षा के लिए छठ का पर्व बनाया था। जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गए, तब द्रौपदी ने छठ व्रत रखा उनकी मनोकामनाएं पूरी हुईं और पांडवों को राजपाट वापस मिल गया।
लोक परंपरा के अनुसार, सूर्य देव और छठी मईया का संबंध भाई-बहन का है। इसलिए छठ के मौके पर सूर्य की आराधना फलदायी मानी गई है। एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार, ऋषि मुद्गल ने माता सीता को छठ व्रत करने को कहा था। आनंद रामायण के अनुसार, जब भगवान राम ने रावण का वध किया था तब रामजी पर ब्रह्म हत्या का पाप लगा था। इस हत्या से मुक्ति पाने के लिए कुलगुरू मुनि वशिष्ठ ने ऋषि मुद्गल के साथ राम और सीता को भेजा था। भगवान राम ने कष्टहरणी घाट पर यज्ञ करवा कर ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति दिलाई थी। वहीं माता सीता को आश्रम में ही रहकर कार्तिक मास की षष्ठी तिथि को व्रत करने का आदेश दिया था।
मान्यता है कि आज भी मुंगेर मंदिर में माता सीता के पैर के निशान मौजूद हैं। ये तो हो गई कथों की बात अब आइए जानते है इस महापर्व के व्रत और पूजा पाठ के विधि विधान के बारे मे कि आखिर इसे कैसे किया जाता है। धर्मशास्त्रों के अनुसार चार दिनों तक चलने वाले इस महापर्व को छठ पूजा, छठी माई पूजा, डाला छठ, सूर्य षष्ठी पूजा और छठ पर्व के नामों से भी जाना जाता है। मुख्य रूप से यह पर्व सूर्य देव की उपासना के लिए मनाया जाता है। ताकि परिवारजनों को उनका आशीर्वाद प्राप्त हो सके। इसके अलावा संतान के सुखद भविष्य के लिए भी इस व्रत को रखा जाता है। कहते है छठ पर्व का व्रत रखने से नि:संतानों को संतान भी प्राप्त हो जाती है। इसके अतिरिक्त मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए भी छठ मैया का व्रत रखा जाता है।
यह महापर्व चार दिनों का होता है। जिसे नहाय खाय, लोहंडा या खरना, संध्या अर्ध्य और उषा अर्घ्य के रूप में मनाया जाता है। इस वर्ष छठ पूजा 25 अक्टूबर से 28 अक्टूबर तक मनाई जाएगी। छठ पर्व के पहले दिन को नहाय खाय कहा जाता है इस दिन घर की साफ़ सफाई करके छठ व्रती स्नान कर पवित्र तरीके से शाकाहारी भोजन ग्रहण कर छठ व्रत की शुरुवात करते हैं। इस दिन को कद्दू-भात भी कहा जाता है। इस दिन व्रत के दौरान चावल, दाल और लौकी की सब्जी को बड़े नियम-धर्म से बनाकर प्रसाद रूप में ग्रहण किया जाता है। छठ पूजा के दूसरे दिन को खरना या लोहंडा के नाम से जाना जाता है। छठ व्रती दिन भर निर्जला उपवास करने के बाद शाम को भोजन करते हैं। जिसे खरना कहते हैं। खरना के प्रसाद में चावल को गन्ने के रस में बनाकर या चावल गुण और पानी मिलाकर रसियाव बनाया जाता है जो खीर के समान होता है,और इसके साथ में गेहूं के आटे की रोटियां चूल्हे पर बनाई जाती है जिसमें गौ के घी का इस्तेमाल किया जाता है। जब प्रसाद बन जाते है तो शाम को केले के पत्ते पर इस प्रसाद को रखकर फल फूल चढ़ाकर और विधी विधान से पूजा करके व्रती इस प्रसाद को ग्रहण करतीं है फिर घर परिवार के सभी सदस्य इस प्रसाद को ग्रहरण करते है।
इसके बाद तीसरे दिन दिनभर घर में चहल पहल का माहौल रहता है। व्रत रखने वाले दिन भर डलिया और सूप में नानाप्रकार के फल, ठेकुआ, खजूर मिठाईयां अन्य अन्य प्रकार के सामान को सूप और दौरा में सजाती है। यह काम सिर्फ व्रती ही नही करती बल्की घर सभी परिवार मिलकर करते है क्योंकि ये कोई आम काम या आम पूजा नहीं होता है बल्की दुनिया का सबसे बड़ा पर्व होता है इसीलिए इसे पर्व नहीं बल्की महापर्व कहा जाता है।
तीसरे दिन सुबह – सुबह जब सूर्योदय नही हुआ रहता है तभी सभी के घर मिट्टी के चूल्हे पर ठेकुआ और खजूर ,पूड़ीया ये सभी प्रसाद बनने लगती है। फिर शाम को घाट पर घर परिवार के सभी सदस्यों के साथ व्रती घाट पर या तालाब, नहर, नदी, जैसे स्थानों पर जाकर सबसे पहले इस छठी मैया का पूजी पाठ करतीं है फिर पानी में खड़े होकर डूबते हुए सूर्य की पूजा करते हुए परिवार के सभी सदस्य की खुशियों और लंबी उम्र की कामना करती है फिर अर्घ्य देते हैं। और फिर शाम को वापस घर आते हैं और कोसा भरते है और दीप प्रज्वलित करते है। कोसा भरना क्या होता है इसकी विधि क्या होती है तो इसको भी आपको मैं बता देती हूं ।
दरअसल कोसा भरने के लिए ईख जिसे गन्ना भी कहा जाता है। उसे साफ सुथरा करके घर के आंगन या घर के किसी खुले स्थान पर उन गन्नो को बांध कर फिर चारों तरफ गोल आकृति में फैला दिया जाता है। फिर उन गन्नो के उपर वाले हिस्से में एक वस्त्र में फल फूल मेवा मिष्ठान ठेकुआ इत्यादी सामग्री को एकत्रित कर के बाधं दिया जाता जिसे चनवा बांधना कहते है। इसके बाद मिट्टी के बने बड़े दिए में छठ के सभी प्रसाद को उस दिए में रखा जाता है जिसे कोसा कहते है। और इसकी संख्या 24 या 48 होती है ठीक इसी प्रकार ईख की संख्या भी 24 या 48 होती है फिर इस कोसे को ईख के चारे तरफ रखा जाता है और इनके उपर दिए प्रजवल्लीत करके रखे जाते है। फिर विधि विधान से पूजा पाठ किया जाता है घर की महिलाए छठी मैया का गीत गाती है और घर का माहौल खुसनुमा सा इस दिन रहता है। उस मानो घर में एक ऐसी रौनक होती है जो पूरे साल में कभी देखने को नही मिलती है। यही वजह है की एक बीहारी या छठी मैया को मानने वाला व्यक्ति इस दिन का बेसब्री से इंतजार करता है। इस दिन को शब्दो में बयां करना बेहद ही मुश्किल होता है।
इसके अगले दिन यानी चौथे और अंतिम दिन छठ व्रती को सूर्य उगने के पहले ही फिर से उसी तालाब, नहर, नदी पर जाना होता है जहां वे तीसरे दिन गए थे। इस दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देकर अपनी मनोकामना पूर्ण करने के लिए भगवान् सूर्य से प्रार्थना की जाती है। परिवार के अन्य सदस्य भी व्रती के साथ सूर्यदेव को अर्घ्य देते हैं और फिर वापस अपने घर को आते हैं। यह व्रत 36 घंटे से भी अधिक समय के बाद समाप्त होता है। छठ व्रती चार दिनों का कठिन व्रत करके चौथे दिन पारण करते हैं और प्रसाद का आदान-प्रदान कर व्रत संपन्न करते हैं। यह दिन हर उस परिवार के लिए बेहद खास होता है जिसके घर छठ पूजा होता है।
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