वर्ष 1971 के मध्यावधि चुनाव में इंदिरा गांधी की पार्टी कांग्रेस (आर) प्रचंड बहुमत से सत्ता में आयी। स्वयं इंदिरा गांधी ने रायबरेली संसदीय सीट से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार राज नारायण को हरा कर लोकसभा का चुनाव जीता था। तत्समय नेहरू परिवार की लोकप्रियता के कारण इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री पद हेतु चुना गया।
राज नारायण ने चुनाव में धांधली और अनियमितता का आरोप लगाते हुये इलाहाबाद उच्च न्यायालय में, चुनाव की वैधता को, एक याचिका के माध्यम से चुनौती दी। लगभग साढे तीन वर्ष बाद 12 जून 1975 को उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया। इस निर्णय के बाद विपक्ष के साथ ही पार्टी के अंदर विरोध शुरू हो गया। इंदिरा गांधी के पास सत्ता छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं था परन्तु उनके सलाहकार इसके लिये तैयार नहीं थे। अंततः 25 जून 1975 को देश में आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था के नाम पर आपातकाल घोषित कर दिया गया।
आपातकाल भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक काले दिवस के रूप में विख्यात है क्योंकि घोषणा के बाद देश के आम नागरिकों की स्वतंत्रता का हनन करते हुये उनके मौलिक अधिकारों को निलम्बित कर दिया गया। पूरे देश में छापेमारी करके राजनीतिक विरोधियों सहित राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के तमाम पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं को जेलों में ठूस दिया गया। बड़ी संख्या में लोगों पर आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम (मीसा) लगा दिया गया। कहा जाता है कि उस समय लगभग एक लाख लोगों को अनायास ही फर्जी आरोपों में जेलों में डाल दिया गया ताकि कोई सरकार के विरुद्ध आवाज न उठा सके।
देश में आंतरिक सुरक्षा के नाम पर हुई गिरफ्तारियों पर न्यायालय से भी राहत नहीं मिल रही थी। बुद्धिजीवियों का शहर होने के कारण प्रयागराज(तब इलाहाबाद) में संघ की सक्रियता भी अधिक थी, जिसके कारण तमाम स्वयं सेवकों को सेंट्रल जेल नैनी में बंद कर दिया गया। कुछ लोगों पर आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम (मीसा) लगा दिया गया जिनमें संघ के कार्यकर्ता और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के विख्यात अधिवक्ता वीरेन्द्र कुमार सिंह चैधरी भी शामिल थे।
उच्च न्यायालय के अधिवक्ता होने के कारण वीरेन्द्र कुमार सिंह चैधरी जेल में भी सक्रिय रहा करते थे। कई बार अपनी याचिका में बहस के लिये उच्च न्यायालय आते थे लेकिन उनके आसपास पुलिस का कड़ा पहरा रहा करता था। श्री चैधरी प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह उपाख्य रज्जू भैया के मित्र थे, जो उस समय उत्तर प्रदेश और बिहार के क्षेत्र प्रचारक थे। रज्जू भैया का प्रयागराज से बहुत अधिक जुड़ाव था क्योंकि प्रयागराज उनकी कर्मभूमि रही है। वह लम्बे समय तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में भौतिकी विज्ञान विभाग में प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष थे। पुलिस रज्जू भैया को भी वारन्ट लेकर गिरफ्तार करने के लिये खोज रही थी लेकिन रज्जू भैया पहचान छिपा कर, स्थान बदल कर स्वयं सेवकों को संगठित और उत्साहित करने के साथ ही जेलों में निरूद्ध कार्यकर्ताओं के परिवारों की मदद करते रहते थे। पुलिस से बचने के लिये रज्जू भैया ने अपना छद्म नाम ’’गौरव ’’रख लिया था।
नैनी जेल में बंद विभिन्न राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के साथ साथ संघ के स्वयं सेवक का जीवन घुप्प अंधेरे जैसा था, उन्हें बाहर के समाचार जाननेे का कोई साधन नहीं था। यहां कैदियों से मिलने के लिये आने वालों की संख्या नगण्य रहा करती थी। लोग डरते थे कि कहीं पुलिस उन्हें भी किसी फर्जी मामले में जेल में न डाल दे। कैदियों के पास आने वाले पत्र भी जेल से सेंसर होकर आते थे। यदि जेल प्रशासन को कुछ संदेह होता था तो वह पत्र जब्त कर लेते। आपातकाल की अवधि जब बढने लगी तो राजनीतिक कार्यकर्ताओं की चिंता बढने लगी,जेल से कब छूटेंगे, नहीं छूटेंगे जैसे प्रश्न उन्हें परेशान करने लगे, जबकि संघ के कार्यकर्ता जेल में ही अपनी नियमित शाखा के कार्यक्रम करते और मस्त पड़े रहते।
रज्जू भैया कभी कभी छद्म नाम से स्वयं सेवकों के परिवार का समाचार भेजते रहते थे। नवम्बर 1976 में चैधरी को रज्जू भैया का एक पत्र मिला जिसमें स्वयं सेवकों के घर के साथ साथ देश के कई महत्वपूर्ण समाचार भी थे। पत्र देखकर चैधरी हतप्रभ हो गये कि यह पत्र बिना सेंसर कैसे आ गया। पत्र के अंत में रज्जू भैया के लिखे एक हृद्यग्राही वाक्य ’’काल- रात्रि कितनी भी अंधेरी हो, सुप्रभात आता ही है’’ में उजाले की एक किरण दिखायी पड़ी। चैधरी रज्जू भैया का इशारा समझ गये कि अब आपातकाल समाप्त होने वाला है। यह बात तत्काल सभी स्वयं सेवकों को बताया।
सभी संघ कार्यकर्ताओं ने जेल में ही प्रतिज्ञा ली कि वह जेल से बाहर जाने के बाद रात्रि में घर पर नहीं सोयेंगे। समाज में प्रवास करके आसन्न चुनाव के लिये ऐसा जनजागरण और वातावरण तैयार करेंगे कि संघ के विचारों की प्रतिष्ठा हो सके, आपातकाल जल्द से जल्द समाप्त हो और देश के नागरिक पुनः संवैधानिक स्वतंत्रता में जी सके। कुछ दिन बाद मीसा बंदियों को छोड़ कर अन्य कार्यकर्ताओं के जमानत पेपर तैयार कराये गये और वह जेल से बाहर आ सके। 1977 के चुनाव में कांग्रेस की बुरी तरह पराजय हुई, देश में जनता पार्टी की सरकार आयी तो मीसा बंदियों को जेल से बाहर आने का द्वार खुला।
तमाम मीसा बंदी ऐसी यातनाओं के शिकार हुये थे कि उनके लिये सामान्य जीवन जीना बोझ बन गया था। सरकार के लिये उन जख्मों को भरना तो संम्भव नहीं था लेकिन उसने जीवन यापन के लिये आर्थिक सहायता के रूप में पेंशन की व्यवस्था लागू किया। यद्यपि समय के साथ सरकारें बदलती रहीं, कांग्रेस भी सत्ता में आयी लेकिन मीसा बंदियों की पेंशन पर रोक नहीं लगी, जो यह साबित करता है कि समय के साथ कांग्रेस ने भी अपनी गलती मान ली।
अन्य प्रमुख खबरें
प्रधानमंत्री की साइप्रस यात्रा ने दिया भारत विरोधी ताकतों को कड़ा संदेश
Israel-Iran conflict Crude oil prices : मध्य-पूर्व संकट और भारतीय अर्थव्यवस्था
कॉलर ट्यून या मानसिक उत्पीड़न: हर बार क्यों अमिताभ?
हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय: विश्वविद्यालय की लापरवाही और हीला-हवाली के चलते भड़का छात्र आंदोलन
Israel Iran Yudh : ट्रम्प बहके तो मध्य पूर्व में बिगडेंगे हालात
उत्तर प्रदेश में पारदर्शी भर्ती प्रक्रिया से युवाओं के सपने हो रहे साकार
रिश्तों के ATM को संभालें: 'यूजर एग्रीमेंट' नहीं, सच्ची दिलचस्पी है कुंजी
Rahul Gandhi On Army : अभिव्यक्ति के आजादी की सीमा रेखा पार करते राहुल गांधी
बांग्लादेश में आसान नहीं चुनाव की राह
ऑपरेशन सिंदूर: पाकिस्तान का कबूलनामा और राहुल का दर्द
World Environment Day 2025: केवल प्रकृति से जुड़ाव का उत्सव नहीं बल्कि एक वैश्विक आत्मचेतना का पर्व
Most Popular Leader Yogi Adityanath : देश में लगातार बढ़ रही योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता
हिंदू साम्राज्य दिवसोत्सव - हिंदू पद पादशाही की स्थापना का उत्सव
अंसारी के गढ़ में आसान होगी भाजपा की राह
वायु सेना का सुरक्षा को लेकर चिंता और जरूरतों के लिए आत्मनिर्भरता की वकालत