प्रियंका सौरभ
हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय (एचएयू), हिसार, जहां कभी शिक्षा और अनुसंधान का माहौल हुआ करता था, आज वहां जातिगत अन्याय और प्रशासनिक असंवेदनशीलता के खिलाफ छात्र आंदोलनरत हैं। “हमारी जाति एचएयू” अब सिर्फ एक नारा नहीं रह गया है बल्कि छात्रों की अस्मिता, चेतना और संघर्ष का प्रतीक भी बन चुका है। यही एक सवाल कि “हम शिकायत करें तो क्या पहले अपनी जाति साबित करनी होगी?” अब एचएयू परिसर की दीवारों से गूंज रहा है।
देश के अग्रणी कृषि शिक्षण संस्थानों में शुमार एचएयू में इन दिनों छात्रों का आंदोलन की तीव्रता लगातार बढ़ती जा रही है। आंदोलन की जड़ एक कथित जातिगत टिप्पणी है, जिसे लेकर विश्वविद्यालय प्रशासन की चुप्पी और टालमटोल भरे रवैये ने स्थिति को और ज्यादा जटिल बना दिया है। यह संघर्ष केवल एक टिप्पणी या एक घटना तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उच्च शिक्षा संस्थानों में गहरे पैठ बना चुके जातिगत पूर्वाग्रह और भेदभाव के खिलाफ सामूहिक असहमति का प्रतीक बन गया है।
धरने पर बैठे छात्रों में से एक ने जब पोस्टर उठाया, जिसमें लिखा था, “हमारी जाति एचएयू”, तो वह पोस्टर महज एक विरोध का अस्त्र बनकर ही नहीं रहा। यह एक वैचारिक क्रांति बनने की ओर अग्रसर है। छात्र कह रहे हैं कि हमारी पहचान हमारी जाति से नहीं, हमारे ज्ञान, हमारे संस्थान और हमारे अधिकारों से होगी। यह नारा उन सभी छात्रों की आवाज़ है, जिन्हें बार-बार उनकी जाति के नाम पर रोका गया, टोका गया या खामोश किया गया।
प्रशासन की ओर से बनाई गई समिति जब छात्रों के सामने आई, तो छात्र पूछ बैठेः
“हमें जाति क्यों पूछी गई?”
“कोब्स-सा खुद किस जाति का था?”
“क्या शिकायत करने से पहले जाति प्रमाण देना अनिवार्य है?”
लेकिन इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं मिला। समिति का मौन, प्रशासन की उदासीनता और विश्वविद्यालय की निष्क्रियता इस बात का संकेत है कि जातिगत असंवेदनशीलता को यहां संस्थागत स्वीकृति मिल रही है।
छात्रों ने चेतावनी दी है कि अगर उन्हें जवाब नहीं मिला, तो वे भूख हड़ताल पर बैठेंगे। साथ ही, उन्होंने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में शिकायत दर्ज कर यह स्पष्ट कर दिया है कि यह आंदोलन अब किसी एक संस्थान की सीमा में नहीं सिमटा, यह एक राष्ट्रीय मानवाधिकार का प्रश्न बन चुका है।
आज जब देश डिजिटल क्रांति और वैश्विक मंचों पर पहचान बना रहा है, वहीं दूसरी ओर विश्वविद्यालयों में जातिवाद की जड़ों को और गहरा करना विडंबना ही है। कृषि विश्वविद्यालय, जो गांवों और खेतों से आए छात्रों के लिए सपनों का मंच होता है, वही उन्हें उनकी जाति के नाम पर अपमानित किया जा रहा है।
बैकवर्ड और दलित समुदायों से आने वाले कई छात्रों का कहना है कि शिक्षा ही उनका एकमात्र सहारा है, लेकिन जब यही शिक्षा संस्थान उन्हें उनकी पहचान के लिए कटघरे में खड़ा कर दे, तो यह केवल अन्याय नहीं, सामाजिक उत्पीड़न है।
इस आंदोलन को अब केवल छात्रों तक सीमित नहीं रखा जा सकता। किसान संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, जन प्रतिनिधियों और पूर्व छात्रों ने एकजुट होकर इस आंदोलन को समर्थन दिया है। यह बताता है कि यह केवल एक अकादमिक संघर्ष नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना की लड़ाई है।
इस पूरे मामले में एचएयू प्रशासन असहज और दिशाहीन दिखाई दे रहा है। कुलपति की चुप्पी, समिति की निष्क्रियता और संवाद के प्रयासों में ईमानदारी की कमी ने छात्रों के आक्रोश गहरा कर दिया है। प्रशासन को यह समझना होगा कि छात्रों के सवालों को टालना समस्या को सुलझाना नहीं, बल्कि उसे और बढ़ाना है।
अब समय आ गया है कि एचएयू केवल दिखावे के संवाद से आगे बढ़े और कुछ ठोस कदम उठाए-
स्वतंत्र जांच समिति का गठन हो, जिसमें छात्रों की भागीदारी सुनिश्चित की जाए।
जातिगत टिप्पणी के आरोपी पर तत्काल और पारदर्शी कार्रवाई की जाए।
संस्थान में जाति-निरपेक्ष संवाद और प्रशिक्षण कार्यक्रम आरंभ किए जाएँ।
छात्र संघ को वैधानिक अधिकार और प्रतिनिधित्व दिया जाए।
सरकार और शिक्षा विभाग को विश्वविद्यालयों की जवाबदेही तय करनी चाहिए।
यह आंदोलन सिर्फ एचएयू का नहीं रहा। यह उसी चेतना की अगली कड़ी है जो रोहित वेमुला के साथ शुरू हुई, जेएनयू के नारों में गूंजी, और अब हरियाणा के इस कृषि संस्थान से फिर जन्म ले रही है। यह चेतना कह रही है कि जाति अब पहचान नहीं बनेगी, बल्कि इसका विरोध ही पहचान बनेगा।
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